पिट्स इंडिया एक्ट 1784

  • निदेशक अधिनियम की त्रुटियों को दूर करना इसका उद्देश्य था। कंपनी के सार्वजनिक मामलों तथा भारत के प्रशासन कार्य को ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च नियंत्रण के अधीन लाया गया था।
  • इस अधिनियम ने छः कमिश्नरों वाला एक बोर्ड ऑफ कंट्रोल बनाया, जिसमें दो केबिनेट मंत्री भी थे।
  • बोर्ड ऑफ कंट्रोल को निदेशक मंडल तथा भारत सरकार के कार्यों का संचालन एवं नियंत्रण करना था। भारत के ब्रिटिश अधिकार के अन्तर्गत क्षेत्रों के नागरिक एवं सैन्य प्रशासन सभी मामलों पर उन्हें नियंत्रण रखना होता था।
  • तीन निदेशकों वाली एक मनोनीत समिति की नियुक्ति राजनीतिक एवं सैनिक मामलों मे निदेशक मंडल के स्थान पर काम करने के लिए की गई।
  • भारत सरकार को गवर्नर जनरल तथा एक त्रि-सदस्यी कौंसिल के अधीन लाया जाए, ताकि कौंसिल के एक सदस्य का भी समर्थन प्राप्त होने पर वह अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकें।
  • गवर्नर जनरल को निर्णायक मत दिया गया था।
  • यु़द्ध, कूटनीतिक संबंधों तथा राजस्व संबंधी सभी मामलों में मद्रास तथा बंबई की प्रेसिडेंसियां बंगाल प्रेसीडेन्सी के अधीन होगी।
  • गवर्नर जनरल तथा कौंसिल ब्रिटिश शासन के अधीन बनाया गया था। निदेशकों अथवा मनोनीत समिति के अनुमोदन के बिना वे किसी युद्ध की घोषणा अथवा संधि का प्रस्ताव नहीं कर सकते थे।
  • गवर्नर जनरल की एक्जीक्यूटिव कौंसिल में एक सदस्य कम करके उसकी स्थिति सुदृढ बना दी गई। गवर्नर जनरल और गवर्नरों को अपनी कौंसिलों के प्रतिकूल जाने का अधिकार दिया गया।
  • गवर्नर जनराल को निदेशकों तथा बोर्ड ऑफ कंट्रोल दोनों के स्वामित्व के अधीन कार्य करना था।
  • गवर्नर जनरल नियुक्त होने के साथ कार्नवालिस ने भारत में सुरक्षा शांति और ब्रिटिश साम्राज्य के हितों से जुड़े महत्वपूर्ण मामलों में कौंसिल का उल्लंघन करने का अधिकार पाने पर बल दिया।
  • 1786 के अधिनियम से उसे वांछित अधिकार मिल गया। गवर्नर जनरल तथा कमांडर-इन-चीफ ‘मुख्य सेनापति’ के पदों को संयुक्त कर दिया गया।
  • 1788 के विज्ञप्ति अधिनियम ने बोर्ड ऑफ कंट्रोल को पूर्ण अधिकार एवं वर्चस्व दे दिया।
1793 का चार्टर एक्ट
  • कम्पनी के व्यापारिक अधिकारों को ओर 20 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया। अपनी परिषद के निर्णयों को रद्द करने की जो शक्ति लार्ड कार्नवालिस को दी गई थी, वह आने वाले गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों को भी दे दी गई।
  • गवर्नर जनरल का बम्बई और मद्रास की प्रेसीडेंसियों पर अधिकार स्पष्ट कर दिया गया। यदि गवर्नर जनरल बंगाल के बाहर जाता था तो उसे अपनी परिषद के असैनिक सदस्यों में से किसी एक को उपप्रधान नियुक्त करना होता था ताकि वह उसके स्थान पर कार्य कर सकें। मुख्य सेनापति गवर्नर जनरल की परिषद का स्वतः ही सदस्य होने का अधिकार नहीं था।
  • गृह सरकार के नियंत्रण बोर्ड में एक आयुक्त इसका अध्यक्ष बना दिया गया। इसके दो कनिष्ठ सदस्य अब सम्राट की प्रिवी काउंसिल के सदस्य होने आवश्यक नहीं थे। इन सभी सदस्यों को भारतीय कोष से वेतन मिलता था।

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