भारत का संवैधानिक विकास: चार्टर एक्ट 1813, 1833

1813 का चार्टर एक्ट
  • 1813 के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी का भारतीय व्यापार पर एकाधिकार समाप्त कर दिया गया, यद्यपि उसके चीन के व्यापार का तथा चाय के व्यापार का एकाधिकार चलता रहा।
  • कम्पनी को ओर अगले 20 वर्ष के लिए भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया गया।
  • भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की संवैधानिक स्थिति पहली बार स्पष्ट की गई थी। कम्पनी के भागीदारों को भारतीय राजस्व से 10.5 प्रतिशत लाभांश देने का निश्चय किया गया।
  • भारतीयों के लिए एक लाख रुपये वार्षिक शिक्षा के सुधार, साहित्य के सुधार एवं पुनरुत्थान के लिए और भारतीय प्रदेशों में विज्ञान की प्रगति के लिए खर्च करने का प्रावधान किया गया।
1833 का चार्टर एक्ट
  • चीन के साथ व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया।
  • कम्पनी को आने वाले 20 वर्षों के लिए क्राउन व उसके उत्तराधिकारियों के न्यास के रूप में भारत पर प्रशासन का अधिकार दे दिया।
  • अधिनियम ने भारत के प्रशासन का केन्द्रीयकरण कर दिया गया। बंगाल का गवर्नर भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया और सपरिषद गवर्नर जनरल को कम्पनी के सैनिक और असैनिक कार्य का नियंत्रण, निरीक्षण तथा निदेशन सौंप दिया गया।
  • बंबई, मद्रास तथा बंगाल और अन्य प्रदेश गवर्नर जनरल के नियंत्रण में दे दिए गए। प्रशासन तथा वित्त की सभी शक्ति सपरिषद गवर्नर जनरल के हाथ दे दी गई।
  • अब केवल सपरिषद गवर्नर जनरल को ही भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया और बम्बई तथा मद्रास की संविधान सभाओं की कानून बनाने की शक्ति समाप्त कर दी गई।
  • सपरिषद गवर्नर जनरल सभी विषयों पर सभी स्थानों तथा लोगों के लिए कानून बना सकता था और उसके कानून सभी न्यायालयों द्वारा लागू किये जाते थे।
  • वह समकालीन प्रयोग में आए अथवा भविष्य में बने किसी कानून को रद्द अथवा संशोधित कर सकता था। वह कम्पनी के उन सभी कार्यकर्ताओं के लिए भी कानून बना सकता था जोकि अंग्रेजी प्रदेश अथवा कंपनी से संबंधित राजाओं के प्रदेशों में कार्य करते थे।
  • कुछ मामलों में उसकी कानून बनाने की शक्ति पर प्रतिबंध भी लगे थे। वह कंपनी के संविधान तथा चार्टर एक्ट में परिवर्तन नही कर सकता था। वह क्राउन के विशेषाधिकारों को अथवा संसद के बनाए कानूनों तथा उसके अधिकारों में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता था।
  • गवर्नर जनरल की सहायता के लिए उसकी कौंसिल में एक अतिरिक्त कानून सदस्य को चौथे सदस्य के रूप में शामिल किया गया। यह चौथा सदस्य कानून बनाने के लिए अपनी व्यावसायिक मंत्रणा देने के लिए था।
  • सैद्धान्तिक रूप में उसे केवल कानून बनाते समय परिषद की बैठक में भाग लेने तथा मत देने का अधिकार था परन्तु डायरेक्टरों के कहने पर मैकॉले को, जो इस पद का प्रथम अधिकारी था, सभी बैठकों में सम्मिलित कर लिया जाता था।
  • भारतीय कानूनों को संचित, संहिताबद्ध तथा सुधारने की भावना से एक विधि आयोग की नियुक्ति की गई।
  • एक्ट की साधारण धाराओं सबसे महत्वपूर्ण धारा संख्या 87 थी जिसमें यह कहा गया था कि किसी भी भारतीय अथवा क्राउन की देशज प्रजा को अपने धर्म, जन्म, स्थान, वंशानुक्रम, वर्ग अथवा इनमें से किसी एक कारणवश कंपनी के अधीन किसी स्थान पद अथवा सेवा के अयोग्य नहीं माना जा सकेगा।
  • 1833 के एक्ट के अधीन भारत सरकार को दासों की अवस्था सुधारने और अन्ततः दासता समाप्त करने के लिए भी आज्ञा की गई।
  • 1844 में दासता समाप्त
1853 का चार्टर एक्ट
  • इस एक्ट के अनुसार कंपनी को भारतीय प्रदेशों को ‘महामहिम सम्राज्ञी तथा इसके उत्तराधिकारियों’ की ओर से प्रन्यास के रूप् में किसी निश्चित सतय के लिए नही अपितु ‘जब तक संसद न चाहे’ उस समय तक के लिए अपने अधीन रखने की अनुमति दे दी गई।
  • यह व्यवस्था की गई कि नियंत्रण बोर्ड उसके सचिव तथा अन्य पदाधिकारियों का वेतन अंग्रेजी सरकार नियत करेगी, धन कंपनी देगी।
  • डायरेक्टरों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई और उनमें से 6 क्राउन द्वारा मनोनीत कि
  • ये जाने थे। नियुक्तियों के मामले मे डायरेक्टरों का संरक्षण समाप्त हो गया, क्योंकि नियुक्तियां अब एक प्रतियोगी परीक्षा द्वारा की जाने लगी, जिसमें किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं रखा गया।
  • 1854 में एक समिति मैकाले जिसके अध्यक्ष थे।
  • 1859 में पंजाब में एक उपराज्यपाल की नियुक्ति की
  • भारत में कार्यकारी तथा विधान संबंधी कार्यो के पृथकीकरण की भावना से विधान कार्यों के लिए अन्य सदस्यों का प्रबन्ध किया गया।
  • विधि सदस्य को गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद का पूर्ण सदस्य बना दिया गया और जब यह परिषद् कानून बनाने के लिए बैठे तो इसमें 6 अतिरिक्त सदस्य – उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य छोटा न्यायाधीश तथा बंगाल, मद्रास, बंबई तथा उत्तर-पश्चिमी प्रांत ‘यूपी’ का एक-एक प्रतिनिधि होना चाहिए। ये प्रांतीय प्रतिनिधि असैनिक पदाधिकारी हो, जिनकी कंपनी की न्यूनतम सेवा 10 वर्ष की हो।
  • प्रश्न पूछे जा सकते थे और कार्यकारी परिषद की नीति की विवेचना की जा सकती थी। कार्यकारी परिषद को विधान परिषद के विधेयक को नकारने का अधिकार था।
  • परिषद में वाद-विवाद मौखिक ही होता था और विधेयक एक सदस्य के स्थान पर प्रवर समिति को सौंपा जाता था और इस विधान परिषद का कार्य गोपनीय नहीं अपितु सार्वजनिक होता था।

भारत का संवैधानिक विकास क्रमानुसार पढ़ें:

1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट Regulating act

पिट्स इंडिया एक्ट 1784

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