संसद और मूल अधिकार

  • गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, 1967 के मामले तक उच्चतम न्यायालय का यह मत था कि संविधान का ऐसा कोई भाग नहीं है जिसका संशोधन संसद संविधान के अनुच्छेद-368 के अधीन नहीं कर सकती।
  • किन्तु गोलकनाथ के मामले में न्यायालय ने कहा कि चूंकि मौलिक अधिकारों को संविधान में सर्वोच्च स्थिति दी गयी है, अतः संविधान के अधीन काम करने वाला कोई प्राधिकारी, अनुच्छेद-368 सहित मूल अधिकारों में संशोधन करने में सक्षम नहीं है।
  • 24वें संविधान संशोधन 1971 द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधन की शक्ति का प्रयोग करते हुए संसद मूल अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है।
  • केशवानंद बनाम केरल राज्य, 1973 के विवाद में सर्वोच्च न्यायालय जहां एक ओर 24वें संशोधन अधिनियम की विधिमान्यता को स्वीकार कर गोलकनााि के अपने ऐतिहासिक निर्णय को बदल दिया वहीं दूसरी ओर यह भी स्पष्ट कर दिया कि संविधान के आधिकारिक लक्षणों में कोई संशोधन नहीं किया जा सकता।
  • 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा अनुच्छेद 368 में खंड 4 और 5 स्थापित करके यह स्पष्ट किया गया कि संविधान संशोधन करने की अनुच्छेद 368 के तहत अनन्य शक्ति प्राप्त है। इस शक्ति के प्रयोग द्वारा किये गये किसी संशोधन को न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता।
  • मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ, 1980 के मामले में बहुमत से अनुच्छेद 368 के खंड 4 और 5 को संविधान के आधारिक लक्षणों का उल्लंघन करने के आधार पर अविधिमान्य घोषित कर दिया और मूल अधिकारों को संविधान के ‘आधारभूत लक्षणों’ में शामिल कर दिया।

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