अलाउद्दीन एक शक्तिशाली मुस्लिम सुल्तान था और उसने शासन में इस्लाम के सिद्धांतों का पालन नहीं किया। बलबन की भांति वह भी सुल्तान के प्रताप में विश्वास करता था और उसे पृथ्वी पर ईश्वर का प्रति​निधि मानता था।

उसका मानना था कि सुल्तान की इच्छा ही कानून होनी चाहिए। वह इस सिद्धांत को मानता था कि राजा का कोई सम्बन्धी नहीं होता और राज्य के सभी निवासी उसके सेवक अथवा प्रजा होते हैं।

अलाउद्दीन स्वेच्छाचारी और निरंकुश सुल्तान था। उसके वजीर, सेनापति, सरदार, शासनाधिकारी आदि सभी व्यक्ति उसके कर्मचारी थे और उनमें से कोई व्यक्ति उसे सलाह देने का साहस नहीं कर सकता था। दिल्ली का कोतवाल अला—उल—मुल्क ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति था जिससे अलाउद्दीन ने शासन के विषय में सलाह ली अथवा जो उसे सलाह देने का साहस कर सका।

अलाउद्दीन में वास्तव में मौलिक विचारों को जन्म देने की क्षमता, उनको कार्यरूप में परिणत करने का निश्चय और उनके परिणामों को भुगतने का साहस था। इस प्रकार अलाउद्दीन ने शासन में न तो इस्लाम ​के सिद्धांतों का सहारा लिया, न उलेमा वर्ग से सलाह ली और न ही खलीफा के नाम का सहारा लिया।

उसने यामीन—उल—खिलाफत नासिरी—अमीर—उल मुमनिन (खलीफा का नायब) की उपाधि ग्रहण की।

खजाइनुल फुतूह में अमीर खुसरो ने अलाउद्दीन को ‘विश्व का सुल्तान’, ‘पृथ्वी के शासकों का सुल्तान’, युग का विजेता, जनता का चरवाहा जैसी उपाधियों से विभूषित किया।

इसी कारण डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव ने लिखा है— ”इस प्रकार अलाउद्दीन दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने धर्म पर राज्य का नियंत्रण स्थापित किया और ऐसे तत्त्वों को जन्म दिया जिनमें कम—से—कम सिद्धांत रूप में राज्य असाम्प्रदायिक आधार पर खड़ा हो सकता था।”

इस प्रकार सुल्तान के अधिकारों पर धर्म कोई सीमा लगाये, यह उसे स्वीकार न था।