• इतिहासकार हेज के अनुसार, ‘‘कैथोलिक चर्च में सुधार के प्रयास के परिणामस्वरूप जो धार्मिक आन्दोलन हुआ एवं जो नये धार्मिक सम्प्रदाय बने, उन्हें समष्टिगत रूप से धर्म सुधार आन्दोलन कहा जाता है।’’
    वार्नर एवं मार्टिन के मतानुसार, ‘‘धर्म सुधार पोप पद की सांसारिकता एवं भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक नैतिक विद्रोह था।’’

उद्देश्य: धर्म-सुधार आंदोलन के प्रमुख उद्देश्य थे-

  • ईसाई लोगों के नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन को उन्नत करना।
  • रोम के पोप के व्यापक एवं सम्बन्धी अधिकारों को नष्ट करना।
  • चर्च में व्याप्त बुराइयों एवं भ्रष्टाचार को दूर करना।
  • कैथोलिक चर्च में व्याप्त आडम्बरों को दूर करना, जिससे जनता के सामने धर्म का वास्तविक रूप आ सके।

आन्दोलन के कारण

  • चर्च संगठन के दोष: मध्यकाल से ही चर्च का सम्पूर्ण संगठन दूशित हो गया था। शासन एवं समाज पर नियन्त्रण से चर्च ने असीम शक्ति हस्तगत कर ली थी जिससे वह निरंकुश हो गया था। चर्च एक राज्य की तरह कार्य करता था।
प्रमुख धर्म सुधारक
  • 14वीं शताब्दी से ही सुधारवादियों का यूरोपीय धार्मिक मंच पर आगमन हो गया था। उन्होंने चर्च के संगठन के दोषों एवं पादरी जीवन में विद्यमान अनैतिकता का विरोध किया तथा परिवर्तन की मांग की।प्रारम्भिक सुधारकों ने आगे चलकर मार्टिन लूथर जैसे सुधारकों के लिए सशक्त पृष्ठभूमि तैयार की।

जान वाइक्लिफ 1320-84

  • वाइक्लिफ ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का एक प्राध्यापक था उसने कैथोलिक धर्म की बहुत सी परम्पराओं तथा चर्च के क्रियाकलापों की आलोचना की। उसने घोषित किया, ‘‘ पोप पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि नही है तथा भ्रष्ट एवं विवेकहीन पादरियों द्वारा दिये जाने वाले धार्मिक उपेदश व्यर्थ है।’’
    उसका कहना था कि प्रत्येक ईसाई को बाइबिल के सिद्धान्तों के अनुसार काम करना चाहिए और इसके लिए चर्च या पादरियों के मार्ग निर्देशन की आवश्यकता नहीं है।
    कैथोलिक चर्च की भाषा अब तक लैटिन थी, जिसे आम लोग नही समझते थे। वह जन भाषाओं में धर्मग्रंथों के अनुवाद के पक्ष में था।
  • उसने मांग की कि चर्च की विपुल धन-सम्पत्ति पर राज्य को अधिकार कर लेना चाहिए। उसके विचार एक सीमा तक क्रांतिकारी थे, जिन्हें रूढिवादी धर्माधिकारी सहन नही कर पाये।
  • उस पर धर्मद्रोह का आरोप लगाया गया परन्तु सामान्य जनता में उसकी लोकप्रियता से डर कर वे उसके विरूद्ध कोई सख्त कार्यवाही नही कर पाये।
    1384 ई. में जब उसकी मृत्यु हुई, तब पादरियों ने उसके मृत शरीर को कब्रिस्तान से निकलवाकर गन्दी जगह फिंकवा दिया।
    उसे ‘द मार्निंग स्टार ऑफ रिफार्मेशन’ कहा गया। उसके अनुयायी ‘लोलाडर्स’ कहलाते थे।
जॉन हस 1369-1415 ई.
  • हस बोहेमिया ‘चेक’ का निवासी था और प्राग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था। उसके विचारों पर वाइक्लिफ का गहरा प्रभाव था। उसकी मान्यता थी कि एक सामान्य ईसाई, बाइबिल के अध्ययन से ही मुक्ति का मार्ग खोज सकता है और इसके लिए चर्च आदि के सहयोग की आवश्यकता नही है।
    वह पोप के पतित जीवन तथा चर्च की कुरीतियों का कटु आलोचक था।
    चर्च की निन्दा और नास्तिकता का प्रसार रोकने के आरोप में उसे जिन्दा जला दिया था।

सेवोनारोला 1452-88

  • वह फ्लोरेंस नगर का विद्वान पादरी तथा राजनीतिज्ञ था। उसने पोप के राजसी ठाठ की आलोचना की तथा चर्च के क्रिया कलापों में सुधार पर जोर दिया।
    तत्कालीन पोप एलेक्जेण्डर षष्टम् ने उसे अपने विचारों का प्रचार बंद करने का आदेश दिया, जिसका उसने पालन नही किया।
    इस पर चर्च ने उसे चर्च की महान् परिषद् के सम्मुख स्पष्टीकरण के लिए बुलाया और चर्च की निंदा करने के आरोप में भी जिंदा जला दिया गया, उसके शव की राख ले जाकर नदी में फेंक दी।

इरेस्मस 1466-1536

  • हॉलैण्डवासी इरेस्मस विचारों की गहनता एवं सुन्दर लेखन शैली के कारण शीघ्र ही यूरोप का विख्यात विद्वान बन गया। 1511 ई. में उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द प्रेज ऑफ फॉली’/ मूर्खता की प्रशंसा लिखी।
    इस पुस्तक के द्वारा उसने लोगों का ध्यान सहज ही चर्च की बुराइयों की ओर खींचा। इसमें भिक्षुओं की अज्ञानता एवं उनके सहज विश्वास की आलोचना की गयी। प्रहसनों एवं उपहासों के माध्यम से पोप की कहीं अधिक खिल्ली उडाई।
    इरेस्मस ने ईसाई धर्म के मूल सिद्धान्तों के प्रचार हेतु ‘न्यू टेस्टामेन्ट’ का 1516 ई. में नया संस्करण निकाल कर धर्म की उत्पत्ति की व्याख्या की।

मार्टिन लूथर 1483-1546

  • लूथर का जन्म 10 नवंबर, 1483 ई. को जर्मनी के एक निर्धन किसान परिवार में हुआ।
    लूथर प्रारम्भ में पोप का विरोधी नही था परन्तु 1517 ई. में टेटजेल को सेन्ट पीटर गिरजाघर के निर्माण हेतु, क्षमा-पत्र बेचकर धन इकट्ठा करने की पोप की आज्ञा ने, लूथर को चर्च विरोधी बना दिया। इसके विरोध में विटनबर्ग के कैसल गिरजाघर के प्रवेशद्वारा पर 31 अक्टूबर 1517 को अपना विरोध-पत्र ‘द नाइन्टी फाईव थीसिस’ लटका दिया।
    इन 95 स्थापनाओं अथवा कथनों में चर्च द्वारा सभी उपायों से धन एकत्र करने की आलोचना की गयी थी। पहले लैटिन भाषा में बाद में जर्मन में अनुवाद। जॉन हस के विचारों को अपनाने को कहा।
    उसने तीन लघु पुस्तिकाएं ‘पेम्फलेट’ प्रकाशित किये।इन पुस्तिकाओं में उन मूलभूत सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया, जिन्हें आगे चलकर ‘प्रोटेस्टेन्टवाद’ के नाम से अभिहित किया।
  • ‘एन एडृेस टु नोबिलटि ऑफ द जर्मन नेशन’ जर्मन राष्ट्र के सामंतवर्ग के प्रति एक अपील में उसने चर्च की अपार सम्पत्ति का वर्णन करते हुए जर्मन शासकों को विदेशी प्रभाव से मुक्त होने के लिए प्रेरित किया।
    द बेबीलोनियन केप्टिविटी ऑफ द चर्च ‘चर्च की बेबीलोलियायी कैद’ में उसने पोप और उसकी व्यवस्था पर प्रहार किया।
    द फ्रीडम ऑफ क्रिश्चियन मैन ‘एक ईसाई मनुष्य की मुक्ति’ में उसने मुक्ति के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया और ईश्वर की अनुकम्पा पर अटूट विश्वास की प्रतिष्ठा की। इन्हीं लघु पुस्तिकाओं में प्रतिपादित सिद्धान्त आगे चलकर प्रोटेस्टेण्ट बाद के आधारभूत तत्व बने।
  • 1520 में लूथर को धर्म से निष्कासित कर दिया। इस अवधि में उसका मित्र सैक्सनी का शासक उसका संरक्षक रहा। जर्मनी के अनेक शासक चर्च विरोधी थे, अतः लूथर को धर्म से बहिष्कृत किया गया, तो उसे कोई क्षति नही हुई।रोम के पवित्र साम्राज्य का अध्यक्ष चार्ल्स पंचम, यद्यपि पोप का समर्थक था, परन्तु वह युद्धों में इतना उलझा हुआ था कि बढते हुए धार्मिक असन्तोष को कुचलने में असमर्थ रहा।
  • दूसरी ओर मार्टिन लूथर ने आन्दोलन को सफल बनाने के लिए अथक प्रयास किया तथा भाषणों, लेखों एवं पत्रिकाओं द्वारा समाज के सभी वर्गो में जागृति उत्पन्न की।इस जागरण में शहरी मध्यमवर्ग के विभिन्न समूह तथा दस्तकारों की भूमिका सबसे प्रमुख थी।1521 ई. में जर्मन राज्य की वर्म्स में आयोजित सभा ने उसे अपने विचार वापस लेने को कहा उसने कहा कि वह ऐसा कर सकता है, यदि उसकी बातें तर्क और प्रमाण के द्वारा काट दी जाये। इस सभा में उसकी रचनाओं को गैर कानूनी घोषित कर दिया तथा उसे कानूनी रक्षा से वंचित कर दिया।
  • उसने बाइबिल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया।
  • लूथर के विचार एवं उनका प्रसार उसने ईसा और बाइबिल की सत्ता स्वीकारने तथा पोप और चर्च की दिव्यता एवं निरंकुशता को नकारने की बात कही। चर्च द्वारा निर्धारित कर्मों के स्थान पर उसने ईश्वर में आस्था को मुक्ति का साधन बताया।
  • ‘सप्त संस्कारों’ में से उसने केवल तीन नामकरण, प्रायश्चित और पवित्र प्रसाद/रोटी को ही माना।चर्च के चमत्कार में अविश्वास व्यक्त किया।किसी भी व्यक्ति को न्याय से उपर नही होना चाहिए। रोम के चर्च के प्रभुत्व का अन्त करके राष्ट्रीय चर्च की शक्ति को सबल बनाया जाना चाहिए। धर्मग्रंथ सबके लिए हैं, सब उसका ज्ञान प्राप्त कर सकते है। चर्च के भ्रष्टाचार को रोकने के लिए पादरी लोगों को विवाह करके सभ्य नागरिकों की तरह रहने की अनुमति दी जानी चाहिए। मुक्ति केवल ईश्वर की असीम दया, ईश्वर में श्रद्धा तथा भक्ति के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है, धर्माधिकरियों की कृपा से नहीं।