अभिवृद्धि से तात्पर्य व्यक्ति के शरीर के अंगों के आकार, भार और कार्य शक्तियों में होने वाली वृद्धि से होता है। उसके शारीरिक अंगों में बाह्य (हाथ, पैर, सिर और पेट आदि) और आंतरिक (पाचन, रक्त, श्वसन आदि विभिन्न तंत्र) दोनों अंग आते हैं।
व्यक्ति की यह अभिवृद्धि एक निश्चित आयु (18-20 वर्ष) तक होती है और इसका मापन यंत्रों के द्वारा किया जा सकता है।
- मुनरो – “अभिवृद्धि से तात्पर्य शरीर, आकार और भार में पाई जाने वाली वृद्धि अर्थात बालक की शारीरिक लंबाई, चौड़ाई और भार की वृद्धि से होता है”।
- फ्रैंक – “अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि से होता है, जैसे लंबाई और भार में वृद्धि।”
- सोरेनसन- “अभिवृद्धि का अर्थ शरीर तथा शारीरिक अंगों के भार एवं आकार में परिवर्तन होना है, इस वृद्धि को मापा जा सकता है।”
अभिवृद्धि की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार है-
- 1. अभिवृद्धि, विकासको प्रभावित करती है।
2. अभिवृद्धि की एक निश्चित सीमा है।
3. अभिवृद्धि एक प्राकृतिक सीमा है।
4. अभिवृद्धि का संबंध केवल सजीव या मूर्त जीवों या वनस्पतियों से ही है।
5. अभिवृद्धि की प्रक्रिया गर्भावस्था से अठारह-बीस वर्ष की आयु तक चलती है।
6. अभिवृद्धि में मनुष्य के शरीर के आकार, भार व कार्यक्षमता में वृद्धि हैती है, जो सामान्यतः अठारह-बीस वर्ष की आयु तक लगभग पूर्ण हो जाती है।
7. सभी अंगों की वृद्धि समान रूप से नहीं होती।
8. भिन्न-भिन्न आयु स्तर पर अभिवृद्धि की गति भिन्न-भिन्न होती है।
9. अभिवृद्धि मात्रात्मक होती है, इसका मापन गणितीय विधियों से किया जा सकता है।
10. अभिवृद्धि बालक के वंशानुक्रम और पर्यावरण, दोनों पर निर्भर करती है।
विकास का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं-
‘विकास’ शब्द परिवर्तन का धोतक है। व्यक्ति में यथा समय होने वाले विभिन्न परिवर्तनों को ही विकास कहा जाता है। विकास के अंतर्गत व्यक्ति में मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक तथा शारीरिक दृष्टि से होने वाले सभी परिवर्तनों को सम्मिलित किया जाता है। विकास की प्रक्रिया जन्म से मृत्यु तक चलाने वाली प्रक्रिया है। विकास को क्रमिक परिवर्तनों की शृंखला भी कहा जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताओं का उदय होता है।
हैरिस – “विकास का अर्थ है- व्यवस्थित और संगतिपूर्ण तरीके से परिवर्तनों का एक प्रगतिशील शृंखला में होना।
मुनरो – “विकास परिवर्तन शृंखला की वह अवस्था है जिसमें बालक भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है।”
हरलोक – “विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन वह व्यवस्थित तथा समानुगत है जिसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की और परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ व योग्यताएँ प्रकट होती है।
गॉर्डन – “विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति में जन्म से लेकर उस समय तक चलती रहती है जब तक कि वह पूर्ण विकास को प्राप्त नहीं कर लेता।” उनका मानना है कि विकास की प्रक्रिया में बालक को सुखद और दुखद दोनों प्रकार की अनुभूतियों का अनुभव होता है। सुखद परिवर्तनों से अनुकूल और दुखद परिवर्तनों से प्रतिकूल प्रकार की अभिवृत्तियों का बालक में निर्माण होता है।
विकास की प्रमुख विशेषताएं-
1. विकास एक प्राकृतिक एवं सामाजिक प्रक्रिया है।
2. विकास की प्रक्रिया जन्म से लेकर मृत्यु तक होती है।
3. भिन्न-भिन्न आयु स्तर पर विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है। विकास की गति गर्भकालीन अवस्था में सर्वाधिक और परिपक्वावस्था के बाद मंद हो जाती है।
4. विकास में क्रमिक परिवर्तन पाये जाते हैं| परिवर्तनों में निरंतरता पाई जाती है। और ये परिवर्तन अविराम गति से चलते हैं।
5. क्रमिक परिवर्तन एक-दूसरे के साथ किसी-न-किसी रूप से संबन्धित रहते हैं।
6. विकास सामान्य अनुक्रिया से विशिष्ट अनुक्रिया की और होता है।
7. विकास में मात्रात्मक वृद्धि और गुणात्मक उन्नयन, दोनों होते हैं।
8. व्यक्तित्व के सभी पक्षों का विकास समान गति से नहीं होता।
9. शारीरिक विकास तथा मानसिक विकास आपस में धनात्मक रूप से सहा-संबन्धित होते हैं।
10. विकास एकीकृत एवं बहुआयामी होता है।
11. विकास वंशानुक्रम और वातावरण, दोनों पर निर्भर करता है।
12. प्रत्यक्ष रूप से विकास का मापन नहीं किया जा सकता, बल्कि इसका निरीक्षण किया जाता है।