राजस्थान भौगोलिक दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य है। यहां अलग-अलग क्षेत्रों में बोली जाने वाली बोलियों में मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाती व अहीरवाटी प्रमुख है।
उत्पत्ति की दृष्टि से राजस्थानी भाषा का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ।
डॉ. टेसीटोरी के अनुसार 12वीं सदी के लगभग यह भाषा अस्तित्व में आ चुकी थी।
ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं भाषा वैज्ञानिकी के आधार पर राजस्थानी की उत्पत्ति गुर्जरी अपभ्रंश से मानी जाती है।
राजस्थानी भाषा के मरुभाषा, मरुभूम, मरुदेशीय भाषा, मरुवाणी आदि अनेक नाम मिलते हैं।
विक्रम संवत् 835 में उद्योतन सूरि द्वारा लिखित कुवलयमाला नामक कथा संग्रह की रचना जालौर नगर में की गई, इस संग्रह में 18 देशी भाषाओं के नामों का उल्लेख हुआ है।
डिंगल और पिंगल राजस्थानी की दो विशिष्ट शैलियों के नाम है:-
डिंगल –
डिंगल कोई अलग भाषा नहीं बल्कि मारवाड़ी की ही साहित्यिक शैली है।
डिंगल भाषा की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें जो शब्द जिस तरह बोला जाता है, ठीक उसी तरह लिखा जाता है।
डिंगल भाषा का सर्वप्रथम प्रयोग कुशललाभ द्वारा रचित पिंगल शिरोमणि नामक ग्रन्थ में किया गया है।
राजस्थान में चारण कवि बांकीदास और सूर्यमल्ल मिश्रण ने अपनी रचनाओं में डिंगल भाषा का प्रयोग किया है।
पिंगल –
पिंगल भाटों द्वारा रचित राजस्थानी की विशिष्ट काव्य-शैली है।
पिंगल राजस्थानी का ब्रज मिश्रित रूप है, जिसमें राजस्थानी व ब्रजभाषा की समन्वित विशेषताएं परिलक्षित होती है।
राजस्थान की बोलियां
राजस्थान की बोलियों पर पहला वैज्ञानिक अध्ययन जार्ज ग्रियर्सन ने अपने ग्रंथ ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ में किया और उन्होंने मारवाड़ी, जयपुरी-हाड़ौती, मेवाती, अहीरवाटी, मालवी और नीमाड़ी बोलियां निर्धारित की।
राजस्थान में बोली जाने वाली बोलियां –
मारवाड़ी –
बोलने वालों की संख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से मारवाड़ी (पश्चिमी राजस्थानी) प्रथम स्थान पर है।
यह बोली जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, नागौर, सिरोही, सीकर, पूर्वी सिन्ध व दक्षिणी पंजाब में सर्वाधिक बोली ताजी है।
थली, ढटकी, माहेश्वरी, खेराड़ी, ओसवाली, बीकानेरी, देवड़ाबाड़ी, नागौरी व गोडवाड़ी इसकी प्रमुख उपबोलियां हैं।
8वीं सदी मे उद्योतन सूरि द्वारा रचित कुवलयमाला कथा ग्रन्थ में 18 देशीय भाषाओं के अन्तर्गत मरुदेश की भाषा का उल्लेख है।
17वीं शताब्दी में रचित आइने अकबरी में अबुल फजल ने भारत की प्रमुख भाषाओं में मारवाड़ी का गिनाया है।
मारवाड़ी में सम्बन्ध कारक के रूप में रो, रा, री प्रत्यय का प्रयोग तथा न का ण तथा ल का ळ ध्वनि रूपों में प्रयोग होता है।
मारवाड़ी को राजस्थान की मानक बोली भी कहा जाता है।
मेवाड़ी –
यह बोली राजस्थान मेवाड़ (मेदपाट) क्षेत्र में बोली जाती है इसके अंतर्गत उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, भीलवाड़ा व चित्तौड़गढ़ ज़िलों आते हैं।
कीर्तिस्तम्भ अभिलेख से स्पष्ट होता है कि महाराणा कुम्भा द्वारा रचित चार नाटकों में मेवाड़ी भाषा का प्रयोग किया गया था।
मारवाड़ी व मेवाड़ी में मुख्य अन्तर क्रिया के व्यवहार का है।
मेवाड़ी में ऐ तथा औ स्वर नहीं हैं, ऐ को ए तथा औ को ओ बोला जाता है।
जैसे – ओ नीला घोड़ा रा असवार
ढूंढाड़ी –
ढूंढाड़ी ढूंढ (टीला) शब्द से बना है। ढूंढाड़ी को जयपुरी एवं झाड़शाही भी कहते है।
ढूंढाड़ी बोली जयपुर, लावा, किशनगढ़, टोंक, दौसा व अजमेर के उत्तरी-पश्चिमी भाग में बोली जाती है।
इसकी प्रमुख उप-बोलियों में तोरावाटी, चौरासी, नागरचोल, काठोड़ी, राजावाटी, किशनगढ़ी, अजमेरी, शाहपुरी, सिपाड़ी आदि को सम्मिलित किया जाता है।
दादूदयाल और उनके शिष्यों की अधिकांश रचनाएं इसी बोली में है।
इस बोली की मुख्य पहचान छै, छूं, छा, छो, छी सहायक क्रियाएं एवं कांई, कोडै, जद, कद, आदि सर्वनाम है।