मौर्य प्रशासन

 

  • मौर्य साम्राज्य के प्रशासन की विस्तृत जानकारी इण्डिका, अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों एवं तत्कालिक अभिलेखों से प्राप्त होती है। मौर्य प्रशासन के अन्तर्गत भारत में प्रथम बार राजनीतिक एकता देखने को मिली तथा सत्ता का केन्द्रीकरण हुआ।
  • साम्राज्य में प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्तियों से पूर्व उनकी योग्यता एवं चरित्र को परखा जाता था, जिसे ‘उपधा परिक्षण’ कहते थे।

मौर्य साम्राज्य के प्रशासन का ढांचा निम्नलिखित था –
केन्द्रीय प्रशासन –

  • राजा शासन प्रणाली का केन्द्र बिन्दु था, महत्त्वपूर्ण एवं नीति संबंधी निर्णय राजा स्वयं लेता था। व्यवस्थापिका, न्यायपालिका व कार्यपालिका की समस्त शक्तियाँं उसमें निहित थी।

मंत्रिपरिषद् –

  • राजा को परामर्श देने के लिए मन्त्रिपरिषद् थी, जिनकी नियुक्ति वंश व योग्यता के आधार पर राजा करता था। अन्तिम निर्णय का अधिकार राजा का था। एक आन्तरिक परिषद् होती थी, जिसे मन्त्रिण् कहा जाता था। जिसके 3-4 सदस्य होते थे। महत्त्वपूर्ण विषयों पर राजा मन्त्रियों से परामर्श करता था।

अधिकारी –

  • शीर्षस्थ राज्याधिकारी जो संख्या में 18 थे। इन्हें ’तीर्थ’ कहा जाता था। वे केन्द्रीय विभागों का कार्यभार देखते थे, जिनमें कोषाध्यक्ष, कर्मान्तिक, समाहर्ता, पुरोहित एवं सेनापति प्रमुख थे। इसके अतिरिक्त अर्थशास्त्र में 27 अध्यक्षों का उल्लेख मिलता है, जो राज्य की आर्थिक गतिविधियों का नियमन् करते थे। वे कृषि, व्यापार, वाणिज्य, बांट-माप, कताई-बुनाई, खान, वनों आदि का नियमन एवं नियंत्रण करते थे।

नगर प्रबन्ध –

  • नगर प्रबन्ध हेतु 5-5 सदस्यों की 6 समितियां होती थी, जो विभिन्न कार्यों, उद्योग एवं शिल्प, विदेशियों, जनगणना, वाणिज्य-व्यापार, निर्मित वस्तुओं की देखभाल, बिक्रीकर आदि के नियमन-विपणन एवं रख-रखाव का कार्य करती थी।
  • अर्थशास्त्र के अनुसार ‘नागरक’ नगर प्रशासन का अध्यक्ष, गोप तथा स्थानिक उसके सहायतार्थ कर्मचारी थे।

सेना –

  • सैन्य विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी सेनापति होता था। सेना की छः शाखाएंँ थी। जो क्रमशः पैदल, अश्व, हाथी, रथ, यातायात एवं नौ सेना में विभक्त थी।
  • 5-5 सदस्यों की समिति इनकी देखरेख करती थी, जबकि कौटिल्य अर्थशास्त्र में चतुरंगबल को सेना का मुख्य अंग बताता है। ‘नायक’ युद्धक्षेत्र में सेना का नेतृत्व करने वाला अधिकारी होता था।

गुप्तचर व्यवस्था –

  • प्रशासन तन्त्र के साथ-साथ गुप्तचर्या का भी विस्तृत जाल बिछाया गया था, जो मन्त्रियों से लेकर आम जनता की गतिविधियों पर नजर रखते थे। गुप्तचरों को संस्था एवं संचार नाम से पुकारा जाता था।
  • न्याय – धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं राजशासन न्याय संहिता के स्रोत थे। धर्मस्थीय एवं कंटक-शोधक न्यायालय क्रमशः दीवानी तथा फौजदारी मामले सुलझाते थे। न्यायपीठ पद्धति विद्यमान थी, राजा सर्वोच्च न्यायधीश था। राजुक, व्यावहारिक आदि न्यायिक अधिकारी थे। संग्रहण व द्रोणमुख स्थानीय एवं जनपद स्तर के न्यायालय होते थे। दण्ड व्यवस्था अत्यन्त कठोर थी।

राजस्व प्रशासन –

  • समाहर्ता राजस्व विभाग का प्रमुख अधिकारी था। दुर्ग, राष्ट्र, व्रज, सेतु, वन, खाने, आयात-निर्यात आदि राजस्व प्राप्ति के मुख्य स्रोत थे। सन्निधाता राजकीय कोष का मुख्य अधिकारी होता था।
  • जनोपयोगी कार्य – मौर्य साम्राज्य में जनोपयोगी सेवाओं में सिंचाई, सड़क, सराय, चिकित्सा आदि को महत्त्व दिया गया जिसकी व्यवस्था प्रशासनिक अधिकारी करते थे।

प्रांतीय शासन –

  • साम्राज्य चार प्रान्तों में विभाजित था। जिनका प्रशासक राजकुमार होता था, जो मंत्रिपरिषद् एवं अमात्यों के माध्यम से शासन संचालित करता था।
  • चार प्रमुख प्रांत थे – उत्तरापथ, दक्षिणापथ, अवन्ति एवं मध्यप्रान्त।
  • धर्म महामात्र तथा अमात्य प्रान्तीय अधिकारी थे, जो धम्म एवं अन्य कार्य देखते थे। प्रान्तों को आहार या विषय में बाँटा गया था, जो विषयपति के अधीन होते थे।
  • जनपद व ग्रामीण – जनपद स्तर पर राजुक व युक्त नाम अधिकारी थे जो भूमि, न्याय व लेखों संबंधी दायित्व वहन करते थे। ग्रामिक, ग्रामीण स्तरीय अधिकारी था। गोप एवं स्थानिक जनपद व गाँवों के बीच मध्यस्थता का कार्य करते थे।
    इस प्रकार मौर्यकालीन प्रशासन एक केन्द्रीयकृत व्यवस्था थी। जनमत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाएं प्रायः नगण्य थी। गुप्तचर सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करते थे। नौकरशाही को विस्तृत अधिकार प्राप्त थे।

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