कुषाण वंश

  • कुजुल कडफिसस प्रथम (15 से 65 ई.) कुषाण शासक और संस्थापक था। उसेन दक्षिणी अफगानिस्तान, काबुल, कन्धार और पर्शिया के एक भाग को अपने राज्य में मिला लिया।
  • उसने वैदिक धर्म को अंगीकार किया था।

विम कडफिसस द्वितीय (65-75 ई.)

  • उसने शैव धर्म को अंगीकार किया। उसने भारत में पहली बार अपने नाम के सोने के सिक्के जारी किये। उसकी कुछ मुद्राओं पर त्रिभुज, त्रिशूलधारी, व्याघ्रचर्माग्राही औ नन्दी अभिमुख भगवान शिव की आकृति उत्कीर्ण है।
  • कनिष्क को भारत के प्रतापी राजाओं में से एक माना जाता है। उसका समय 78 ई. के आस-पास माना जाता है। उसकी प्रथम राजधानी पेशावर (पुरुषपुर) और दूसरी राजधानी मथुरा थी। उसने 78 ई. में एक नया संवत् चलाया, जिसे अब शक संवत्
    कहा जाता है।
  • कश्मीर को जीतकर कनिष्क नामक नगर बसाया। उसके समय में ही कश्मीर के कुंडलवन में आचार्य वसुमित्र की अध्यक्षता मे चौथी बौद्ध संगीति आयोजित की गयी थी।
  • महास्थान से पायी गयी सोने की मुद्रा में कनिष्क की एक खड़ी मूर्ति अंकित है, जबकि तांबे के सिक्के पर कनिष्क को वेदी पर बलि करते हुए दिखाया गया है।
  • अन्य प्रमुख कुषाण शासक थे – वासिष्क, हुविष्क और वासुदेव प्रथम (152-176 ई.)

मौर्योत्तरकालीन अर्थव्यवस्था –

  • मौर्यों के समय में चल रही राजसत्ता का अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण अब समाप्त हो चुका था और उसकी जगह व्यक्तिगत प्रयासों ने ले लिया।
  • कृषि का काफी विकास हुआ।
  • भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व बढ़ा, लेकिन राजकीय स्वामीत्व भी अस्तित्व में था।
  • कृषि के विकास के लिए राजकीय प्रयास भी किये जाते थे।
  • खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने तनसुलि से एक नहर का विकास करवाया, जिसका निर्माण पूर्व में नंद राजा ने करवाया था।
  • रुद्रदामन ने चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा निर्मित सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार करवाया।
  • सिंचाई के लिए ‘रहट’ का सर्वप्रथम प्रयोग इसी काल में हुआ। (गाथासप्तशती)

करों में कमी का संकेत:

  • रुद्रदामन ने प्रजा से ‘विष्टि’ (बेगार) तथा ‘प्रणय’ (आपातकर) नहीं वसूला।
    भूमि अनुदान का पहला अभिलेखीय साक्ष्य:
    गौतमीपुत्र शातकर्णि का नासिक अभिलेख, जिसमें 200 निवर्तन भूमिदान का वर्णन है।
    अक्षय नीवि (स्थायी भूमि अनुदान – जिसका मूल कभी क्षय नहीं होता) का प्रथम उल्लेख हुविष्क के मथुरा प्रस्तर लेख में हुआ है।

विभिन्न प्रकार के शिल्पियों का उदय –

  • ‘दीर्घनिकाय’ में लगभग 24,
    महावस्तु में 36 तथा
    ‘मिलिन्दपन्हो’ में 75 व्यवसायों का उल्लेख हुआ है।
    खनन एवं धातुकर्म में प्रगति:-
    सोना, चांदी, सीसा, टिन, तांबा, कांसा लोहा एवं बहुमूल्य पत्थर व रत्न से संबंधित कार्य का काफी विकास।
    आरकूट (एक प्रकार का पीतल) जस्ता, सुरमा, लाल संखिया का भी उल्लेख।
    उस समय का सर्वप्रमुख उद्योग मोतीपर आधारित था। प्रमुख केन्द्र – कोल्ची, पांड्य राज्य में।
    प्लिनी, टॉलमी एवं ‘पेरिप्लस’ के अनुसार ‘भारत बहुमूल्य रत्नों का एकमात्र उत्पादक था।
    विभिन्न प्रकार के वस्त्र:-
    सूती वस्त्र, दुकूल (पौधे के रेशे से निर्मित), छौम (सूती वस्त्र का एक प्रकार), पत्रोर्ण (एक प्रकार का रेशमी वस्त्र), शाटक (मथुरा में निर्मित एक प्रकार का कपड़ा), रेशमी वस्त्र, ऊनी वस्त्र, सोने के धागों से कशीदा किया गया वस्त्र, मलमल आदि।
    अन्य उद्योग:-
    तेल निकालना, हथियारों और आभूषणों का काम, हाथी दांत का काम, काष्ठ कला, कुम्भकारी आदि।
    शिल्पियों का संगठन:
    ये संगठन श्रेणी, निगम व पूग कहलाते थे, जिनके प्रधान श्रेष्ठि, प्रमुख व ज्येष्ठक होते थे। इनके कारवां का प्रधान ‘सार्थवाह’ कहलाता था।
    श्रेणियों की रीति-नीति ‘श्रेणी धर्म’ कहलाती थी जिसे राजकीय मान्यता प्राप्त होती थी।
    श्रेणियों का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य इसी काल से प्राप्त होता है।
    साहित्यिक साक्ष्यों से पता चलता है कि इस काल में श्रेणियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई।
    यह काल समृद्ध व्यापार के लिए जाना जाता है जिसकी प्रमुख विशेषताएं थीं:-
    राजकीय नियंत्रित व्यापार की जगह, स्वतंत्र व्यापार को प्रोत्साहन।
    शहरीकरण में वृद्धि एवं उनका समृद्धिकरण:-
    वैशाली, पाटलिपुत्र, वाराणसी, कौशाम्बी, श्रावस्ती, हस्तिनापुर, मथुरा, इन्द्रप्रस्थ, चिरांद, सोनपुर, उज्जैन, तगर, धान्यकटक, पैठान, अमरावती, नागार्जुनकोंडा, भड़ौच, सोपारा, अरिकामेडु, कावेरी पत्तनम, ताम्रलिप्ति, बारबैरिकम्, मसालिया आदि समृद्ध हुए।
    नये मार्गों का विकास –
    46-47 ई. में हिप्पोलस द्वारा मानसून की खोज से भारत-रोम के बीच दूरी एक वर्ष की जगह 40 दिन में तय।
    चीन एवं यूरोप को जोड़ने वाले मार्ग रेशम मार्ग (सिल्क रूट, 7,000 किमी. के करीब) जो भारत होकर जाता था, की स्थापना। भारत से दक्षिण-पूर्व एशिया को जोड़ने वाले समुद्री मार्ग की तलाश।
    व्यापार के विकास से श्रेणियों का योगदान।
    सिक्कों की संख्या में काफी वृद्धि –
    सबसे अधिक सिक्के मौर्योत्तर काल के ही मिले हैं। मुद्रा अर्थव्यवस्था सबसे ज्यादा इसी दौर में लोगों के जीवन में प्रचलित हुई।
    व्यापार में आवश्क वस्तुओं की अपेक्षा विलासिता संबंधी वस्तुओं की प्रधानता।
    भारत-रोम व्यापार:-
    भारत का सर्वाधिक व्यापार रोम के साथ था।
    व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था, जिस पर प्लिनी दुःख व्यक्त करते हुए लिखा है कि ‘10 करोड़ सेस्टर रोम से बाहर चले जाते हैं जिसमें आधे से अधिक केवल भारत को जाते हैं।’
    निर्यात:-
    काली मिर्च (यवनप्रिय), हीरा-मोती, हाथी दांत, रेशम, जटामांसी, केसर, रत्न, कछुआ, चंदन आदि।
    आयात:-
    सोने-चांदी के सिक्के, पुखराज, झीने कपड़े, सुरमा, शीशे के बर्तन, तांबा, टीन, रांगा, गेहूं, शराब, रोमन सुंदरी, लाल मुलम्मेदार एरेंटाइन मृद्भांड, एम्फोरा आदि।
    पश्चिमी एशिया तथा अफ्रीका से –
    आयात:-
    अच्छे घोड़े अरब व मिस्र से, शिलाजीत व लोहा मिस्र से, सोना-चांदी ओमान व अपोलोगस से।
    निर्यात:-
    मिस्र को – हाथी दांत, मोती, जटामांसी, लोहा, लकड़ी।
    अरब को – हीरा, नीलम, लोहे की तलवार, भाला, हाथी दांत।
    दक्षिण – पूर्व एशिया से मसालों का आया करके पुनः रोम को निर्यात, ताकि उनकी मांग पूरी हो सके।

चीन से व्यापार:-

  • सिल्क मार्ग से लाभ तथा चीन से रेशम मंगाकर पुनः रोम को निर्यात से लाभ।
    सर्वप्रथम इण्डो-ग्रीक शासकों ने भारत में सोने के सिक्के चलाये। इन्होंने ही सर्वप्रथम ऐसे सिक्के चलाये, जिन पर शासकों के नाम एवं आकृतियां खुदी होती थी।
    सोने का सिक्का – निष्क, स्वर्ण, दीनार
    चांदी का सिक्का – शतमान, पण
    तांबे का सिक्का – काकणि
    सोना/चांदी/तांबा/सीसे का सिक्का – कार्षापण।
    पोटीन एवं सीसे के सिक्के के लिए सातवाहन प्रसिद्ध थे। मस्तूल वाले जहाजों के चिह्न सातवाहनों के सिक्कों पर मिलते हैं।
    रोमन व्यापार से भी कुषाणों की तुलना में सातवाहनों को अधिक लाभ मिला।
    तीसरी सदी से रोम साम्राज्य ने भारत के साथ व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया।
    इससे शिल्पियों का पतन हुआ और अंततः नगर बस्तियों का ह्रास हो गया और मौर्योत्तर अर्थव्यवस्था गुप्तों के लिए पृष्ठभूमि बन गयी।

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