परिचय
  • जीन पियाजे का जन्म 1886 ई. में स्विजरलैंड में हुआ था। उन्होंने वर्ष 1920 में संज्ञानात्मक विकास का प्रतिपादन किया लेकिन इस सिद्धांत को मान्यता वर्ष 1960 में मिली।
  • संज्ञान दो शब्दों से मिलकर बना है- सम् + ज्ञान। जिसका अर्थ – वह ज्ञान जो संगठित हो।
  • अपने बारे में तथा अपने वातावरण के बारे में व्यक्ति द्वारा प्राप्त ज्ञान, विचार, धारणा व व्याख्या ही संज्ञान है।
  • संक्षिप्त रूप में बाहरी जगत के बारे में जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है वहीं संज्ञान कहलाता है।
  • संज्ञान का उपयोग जीवन के हर क्षेत्र में होता है- निर्णय लेने में, समस्या समाधान में, भविष्यवाणी करने में, जटिल से जटिल विषय को आसानी से समझने में, तर्क करने में, चिन्तन करने में इन समस्त कार्यों में संज्ञान ही कार्य करता है।
  • जीन पियाजे का मानना है कि संज्ञानात्मक विकास अनुकरण की बजाय खोज पर आधारित है। इसमें व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियों के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अपनी समझ का निर्माण करता है। उदाहरण के तौर पर कोई छोटा बच्चा जब जलते हुए दीपक को जिज्ञासावश छूता है तो उसे जलने के बाद अहसास होता है कि यह तो डरावनी चीज़ है, इससे दूर रहना चाहिए।
संज्ञान की विशेषताएं-
  • यह एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है।
  • यह व्यक्तिगत होती है।
  • इसमें पूर्व अनुभवों का प्रयोग होता है।
  • इसमें अनेक मानसिक क्रियाएं एक साथ सम्मिलित होती है।
  • यह विशिष्ट सूझ अथवा समझ को बताती है।
संज्ञान की कार्यविधि-

अ. संगठन

  • प्राणी के द्वारा वातावरण के साथ प्रत्यक्षीकरण हो जाने के बाद समस्त सूचनाएं जिस बौद्धिक क्षेत्र में एकत्रित होती है। यह प्रक्रिया ही संगठन कहलाती है।

ब. अनुकूलन

वातावरण के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करना अनुकूलन कहलाता है। यह दो प्रकार से होता है-

  1. आत्मसातीकरण- पूर्व अनुभव के आधार पर किसी विषय को स्वीकार करना।
  2. समंजन/समायोजन- पूर्व अनुभवों में नवीन सूचनाओं को सम्मिलित करते हुए, पूर्व अनुभवों में परिवर्तन कर वातावरण के साथ सम्बन्ध स्थापित करना ही समंजन कहलाता है।
बालक में शब्द भण्डार-
  • 18 माह – 10 शब्द
  • 2 वर्ष – 272 शब्द
  • 2.5 वर्ष – 450 शब्द
  • 3 वर्ष – 1000 शब्द
  • 3.5 वर्ष – 1200 शब्द
  • 4 वर्ष – 1600 शब्द
  • 4.5 वर्ष – 1900 शब्द
  • 5 वर्ष – 2100 शब्द
  • 10 वर्ष – 5000 शब्द
  • 12 वर्ष – 80000 शब्द
जीन पियाजे के अनुसार मानव विकास की अवस्थाएं-
अ. संवेदी पेशीय अवस्था Sensory Motor Stage-
  • जन्म से दो वर्ष तक की अवस्था
  • इस अवस्था में बालक संवेदनाओं के द्वारा वातावरण से ज्ञान ग्रहण करता है।
  • यह अवस्था मुख्यतः ज्ञानेन्द्रियों व शरीर के गामक अनुभव पर निर्भर करती है।

विशेषताएं-

  • जिज्ञासा की उत्पत्ति
  • आंख से ओझल, मस्तिष्क से ओझल की स्थिति
  • अनुकरण की प्रवृत्ति
  • वस्तु स्थायीत्व- जब तक वस्तु प्रत्यक्ष रूप में होती है।
ब. पूर्व क्रियात्मक अवस्था Pre-Operational Stage
  • 2-7 वर्ष तक की अवस्था।
  • a. पूर्व संप्रत्ययात्मक काल Pre-Conceptual Phase
  • b. आंतप्रज्ञ चिंतन का काल
  • इस अवस्था में तार्किक चिन्तन की क्रियाएं पूर्ण रूप से विकसित नहीं होती है। अतः इसे तर्कहीन चिन्तन की अवस्था कहा जाता है।
  • खोज की अवस्था
  • आत्मकेन्द्रितता गुण का उदय होना
  • जीववाद की स्थापना होना
  • सामाजिक कार्य में रूचि प्रारम्भ
स. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था Concrete Operation
  • 7-12 वर्ष तक की अवस्था
  • वस्तुओं के मूर्त रूप की उपस्थिति पर अमूर्त चिन्तन
  • अविलोमीयता का विकास (प्रारम्भिक बिन्दु पर पहुंचना)
  • संरक्षण का सिद्धांत
  • तार्किक गुणितता विकास प्रारम्भ
  • सहति (स्थिति), भार, द्रव, संख्या, आयतन का ज्ञान
  • उल्टी स्थिति पर पहुंचना
द. औपचारिक संक्रिया अवस्था
  • लगभग 11-12 वर्ष से जीवनपर्यन्त चलता है
  • पियाजे के अनुसार बालक में अमूर्त चिन्तन की योग्यता 11 वर्ष के आसपास प्रारम्भ हो जाती है। औपचारिक क्रियात्मक अवस्था के दौरान वैज्ञानिक जिस प्रकार समस्या का समाधान (प्रयोगशाला) में करता है, बालक उसी प्रकार विषयों के सम्बन्ध में खोज करने व तर्क करने लगते हैं। इस अवस्था में बालक क्रियाओं पर क्रियाएं करने लगता हैं।
  • दूसरे शब्दों में इस अवस्था में बालक को विचार करने के लिए मूर्त वस्तुओं की आवश्यकता नहीं पड़ती हैं। इसी अवस्था में बालक अमूर्त बातों के सम्बन्ध में तार्किक चिन्तन करने की योग्यता का विकास कर लेता है।
  • समस्या समाधान लगभग व्यवहार में अत्यधिक व्यवस्थित हो जाता हैं। बालक निष्कर्ष निकालने लगता है। व्याख्या करने लगता है।
    परिकल्पनाओं का निर्माण करने लगता है।
  • इसी अवस्था में बालक स्व आलोचक भी बन जाते हैं क्योंकि वे अपने बारे में अत्यधिक विचार करने लगते हैं।
  • बालक एक साथ अधिक से अधिक तथ्यों को समझने तथा अधिकाधिक दृष्किोणों को अपने विचार प्रक्रिया में स्थान देने योग्य बन जाते हैं।
  • पुरानी पीढ़ी के मूल्यों तथा व्यवहार की विश्लेषणात्मक व्याख्या करके उसकी आलोचना करना प्रारम्भ कर देते हैं।
जीन पियाजे का शिक्षा में योगदान
  • अधिगम से पहले बालक को शारीरिक व मानसिक रूप से तैयार करना चाहिए।
  • वातावरण का निर्माण इस प्रकार से करना चाहिए ताकि बालक ज्यादा से ज्यादा वातावरण के आधार पर सीखें।
  • बच्चे को कभी दबाव के आधार पर नहीं सिखाया जाना चाहिए।
  • बालक को जीववाद व आत्मकेन्द्रितता से दूर ले जाकर याथार्थ का अनुभव कराना चाहिए।
  • पाठ्यक्रम का निर्माण बालकों के बौद्धिक स्तर, अभिरूचि व स्वभाव को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।

नोट-

  • बालक के मस्तिष्क में नये ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया को निर्मित्तिवाद कहते है और उस नये ज्ञान को संज्ञान कहते हैं।
  • बालक अपने आस-पास सभी वस्तुओं का केन्द्र स्वयं को समझने लगता है इसे आत्मकेन्द्रिता कहते हैं।
  • बालक प्रत्येक चलने-फिरने वाली निर्जीव वस्तु का सजीव समझने लगता है तो इसे जीववाद कहते है।
  • जब बालक किसी एक ज्ञान को अनेक परिस्थितियों में तुलनात्मक दृष्टि से सीखने के योग्य हो जाता है, इसे पलावटी गुण कहते है।