• सिंधु घाटी सभ्यता एक सुविकसित कांस्युगीन नगरीय सभ्यता थी। इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता, सैंधव सभ्यता आदि नामों से भी जाना जाता है।
  • जब इस सभ्यता के स्थलों को शुरूआती सालों में खोजा गया था तब ज्यादातर सिंधु नदी के तट पर स्थित हैं, अतः पुरातत्वविदों ने इसका नाम ‘सिन्धुघाटी की सभ्यता’ से इसे पुकारा। इनमें प्रमुख थे – मोहनजोदड़ो, चन्हूदड़ो, आम्री, कोटदीजि आदि।
  • कालान्तर में इस सभ्यता के प्रमाण सिन्धु नदी घाटी के बाहर भी मिले जैसे – सरस्वती, यमुना घाटी, गोदावरी आदि।
  • हड़प्पा सभ्यता नाम देने के पीछे कारण यह है कि इस सभ्यता में खोजा गया पहला स्थल हड़प्पा था जो रावी नदी के तट पर स्थित है।
  • सिन्धु सभ्यता का समय 2500-1750 ई. पू. था।

सीमा निर्धारण एवं विस्तार

  • हड़प्पा सभ्यता का विस्तार भारतीय उपमहाद्वीप में भारत, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान आदि देशों में फैला हुआ है।
  • इस सभ्यता का विस्तार पर्व में आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में) से लेकर पश्चिम में सुत्कागेंडोर (पाकिस्तान के बलूचिस्तान) तक लगभग 1600 किमी तक और उत्तर में मांडा (जम्मू-कश्मीर) से लेकर दक्षिण में दैमाबाद (महाराष्ट्र) 1400 किमी तक विस्तृत है।
  • भारत में इस सभ्यता के स्थल पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर में पाये गये हैं जोकि इस सभ्यता के सर्वाधिक पुरास्थल भारत में ही है।

नगर नियोजन

  • सिन्धु सभ्यता के नगर विश्व के प्राचीनतम सुनियोजित नगर हैं।
  • सड़कें सीधी दिशा में एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई नगर को अनेक वर्गाकार तथा चर्तुभुजाकार खण्डों में विभाजित करती थी।
  • सिन्धु सभ्यता में सर्वाधिक चौड़ी सड़क मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई जिसकी चौड़ाई लगभग 10 मीटर थी।
  • सामान्यतः मकान के दरवाजे मुख्य सड़कों पर न खुलकर गलियों में खुलते थे।
  • हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में मकानों के निर्माण में सामान्यतः पकी ईंटों का प्रयोग किया जाता था, जबकि अन्य स्थलों से ज्यादातर कच्ची ईंट का प्रयोग मिलता है।
  • ईंटों का आकार सामान्यतः 10‘ 5‘ 21/2 इंच था जिनमें 4ः2ः1 का अनुपात था।
  • कालीबंगा से अलंकृत ईंट का प्रमाण मिलता है।

हड़प्पा

  • हड़प्पा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित मॉन्टगोमरी जिले में रावी नदी के बांये तट पर स्थित है।
  • हड़प्पा के टीले के विषय में सर्वप्रथम जानकारी 1826 ई. में चार्ल्स मेसन ने दी थी।
  • 1921 ई. में दयाराम साहनी के नेतृत्व में (1926 में माधोस्वरूप वत्स) इसकी खुदाई की गई।
  • 1946 में मार्टीमर ह्वीलर ने व्यापक स्तर पर उत्खनन करवाया।
  • हड़प्पा से प्राप्त दो टीलों में पूर्वी टीेले को नगर टीला तथा पश्चिमी टीले को दुर्ग टीला कहते है।
  • यहां पर छः-छः की दो पंक्तियों में निर्मित कुल 12 कक्षों वाले एक अन्नागार का अवशेष प्राप्त हुए हैं।
  • सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक कब्रिस्तान स्थित है, जिसे समाधि आर-37 नाम दिया गया है। समाधि-एच भी मिली है।
  • यहां पर खुदाई से कुल 57 शवाधान पाए गए हैं। शव प्रायः उत्तर -दक्षिण दिशा में दफनाए जाते थे जिनमें सिर उत्तर की ओर होता था।
  • 12 शवाधानों से कांस्य दर्पण भी पाए गये हैं। लकड़ी का ताबूत भी मिला है।
  • हड़प्पा के ‘एफ’ टीले में पकी हुई ईंटों से निर्मित 18 वृत्तकार चबूतरे मिले है। हर चबूतरे पर ओखली लगाने के लिए छेद था।
  • इन चबूतरों के छेदों से राख जले हुए गेहूं तथा जौ के दाने एवं भूसा के तिनके मिले हैं।
  • मार्टीमर व्हीलर का अनुमान है कि इन चबूतरों का उपयोग अनाज पीसने के लिए किया जाता रहा होगा।
  • श्रमिक आवास के रूप में विकसित 15 मकानों की दो पंक्तियां मिली है जिनमें उत्तरी पंक्ति में सात एवं दक्षिणी पंक्ति में 8 मकानों के अवशेष प्राप्त हुए है। आकार 17 वाई 7.5 मीटर
  • प्रत्येक गृह में कमरे तथा आंगन होते थे। इनमें मोहनजोदडों के घरों की तरह कुंए नहीं मिले है।
  • सिंधु सभ्यता में अभिलेख युक्त मुहरें सर्वाधिक हड़प्पा से मिले है।
  • हड़प्पा में मोहनजोदड़ों के विपरीत पुरूष मूर्तियां, नारी मूर्तियों की तुलना में अधिक है।
  • नगर की रक्षा के लिए पश्चिम की ओर स्थित दुर्ग टीले को ह्वीलर ने माउण्ट ए-बी की संज्ञा प्रदान की है।
  • हड़प्पा में अन्नागार गढ़ी से बाहर मिला है, वही मोहनजोदडों में यह गढ़ी के अन्दर है।
    कुछ महत्वपूर्ण अवशेष –
    तांबे का पैमाना मिला है।
    एक बर्तन पर मछुआरे का चित्र बना है।
    शंख का बना बैल, पीतल का बना इक्का
    स्त्री के गर्भ से निकला हुआ पौधा
    ईंटों के वृत्ताकार चबूतरे, गेहूं तथा जौ के दानों के अवशेष भी मिले है।

मोहनजोदड़ो

  • मोहनजोदड़ो का नगर दो खंडों में विभक्त था। पश्चिम में दुर्ग क्षेत्र एवं पूरब में निचला नगर।
  • विशाल स्नानागार – यह पक्की ईंटों से निर्मित सिन्धु सभ्यता की सबसे सुन्दर कला है। यह पूरी इमारत 180 फीट लम्बी एवं 108 फीट चौड़ी है।
  • इसमें तल तक पहुंचने के लिए उत्तर तथा दक्षिण दिशा में सीढ़ियां बनी थी।
  • यहां से एक विशाल अन्नागार, सभा भवन, पुरोहित आवास आदि मिले हैं।
  • गोमेद के मनके से बना हार मिला है।
  • चांदी की अंगूठी, चांदी की डिब्बी में लाल कपड़े का साक्ष्य, कांसे की बनी नर्तकी की मूर्ति मिली है।
  • पत्थर निर्मित योगी की मूर्ति, सीप का बना पैमाना, एक मुद्रा में तीन सिर वाले देवता का चित्र, गुरिया मनका बनाने का कारखाना, लिपिस्टक और वक्राकार ईंट मिली है।
  • एक ईंट पर कुत्ते और बिल्ली के पैर के निशान मिले हैं।
  • मानव के साथ कुत्ते को दफनाये जाने का प्रमाण भी मिले हैं।

चन्हूदड़ो

  • यहां से वक्राकार ईंट के प्रमाण मिले हैं।
  • गुरिया-मनका बनाने का कारखाना प्राप्त हुआ है।

लोथल

  • गुजरात में भोगवा नदी के किनारे स्थित
  • इसे लघु हड़प्पा एवं लघु मोहनजोदड़ो कहा जाता है।
  • लोथल नगर के पश्चिम में दुर्ग क्षेत्र एवं पूरब में निचला नगर था। यहां का दुर्ग क्षेत्र एवं निचला नगर एक ही रक्षा प्राचीर से घिरा हुआ था।
  • यहां से मनका बनाने का कारखाना मिला है।
  • लोथल में मकानों के दरवाजे मुख्य सड़कों पर खुलते थे।
  • लोथल में एक डाकयार्ड (गोदीवाड़ा) प्राप्त हुआ है। यह पक्की ईंटों से निर्मित है। इसका आकार 218 मीटर लम्बा, 36 मीटर चौड़ा एवं 3.3 मीटर गहरा है।

धौलावीरा

  • यह भारत में स्थित सिन्धु सभ्यता का सबसे बड़ा नगर है।
  • धौलावीरा नगर अन्य नगरों की योजना से भिन्न योजना में बसाया गया है।
  • यहां से स्टेडियम एवं सूचना पट्ट का प्रमाण मिलता है।

कालीबंगा

  • यहां से प्राक् सैंधव सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं।
  • यह राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में घग्घर नदी के तट पर स्थित है।
  • यहां का दुर्ग क्षेत्र और निचला नगर दोनों अलग-अलग रक्षा प्राचीर से घिरा हुआ था। यहां के एक फर्श से अलंकृत ईंट का साक्ष्य मिला है।
  • यहां से आयताकार अग्निवेदिकायें प्राप्त हुई हैं।

 

  • सैंधव समाज में व्यापारियों का महत्वपूर्ण स्थान रहा होगा।
    सैंधववासी शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। मांस, मछली, दूध का प्रयोग करते थे।
  • धौलावीरा से उन्नत जल प्रबन्धन का प्रमाण मिला है।
    सैंधव धर्म में सर्वाधिक पूजा मातृ देवी की होती थी। मूर्ति पूजा का सर्वप्रथम प्रमाण हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त होता है।
    सैंधववासी पुरुष देवता के रूप में पशुपति शिव की पूजा करते रहे होंगे। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा में सींगयुक्त त्रिमुखी देवता का चित्रण है जिसे आदि शिव की संज्ञा दी गई है।
    सैंधववासी काल्पनिक एवं वास्तविक पशुओं की पूजा करते थे इनका पूजनीय पशु कुबड़वाला बैल था।
    कालीबंगा से प्राप्त बच्चे की एक खोपड़ी में 6 छेद के निशान मिलते हैं। पुराविदों ने इसे शल्य चिकित्सा का प्रमाण माना है।
    मेसोपोटामियाई अभिलेखों में दिल्मुन, मगन एवं मेलुहह नामक तीन देशों का उल्लेख है जहां से मेसोपोटामियाई व्यापारी विभिन्न वस्तुओं का आयात करते थे।
    सैंधववासी कपास के प्रथम उत्पादक थे इसलिए यूनानियों ने कपास का नाम सिन्डोन रखा अर्थात् सैंधववासियों की उपज।

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