बौद्ध दर्शन

बौद्ध मत का प्रतिपादन गौतम बुद्ध ने किया था। इस दर्शन के प्रमुख सिद्धांत निम्नप्रकार हैं’

चार आर्य सत्य
  • बौद्ध दर्शन गौतम बुद्ध द्वारा स्थापित एक नास्तिक दर्शन है।
  • इसे भारतीय दर्शन का सर्वाधिक मानवतावादी दर्शन माना गया है।
  • बौद्ध दर्शन का प्रारंभिक स्वरूप चार आर्य सत्यों में प्रकट होता है।
  • चार आर्य सत्य ही तथागत – धर्म तथा दर्शन के मूलाधार है।
  • इन आर्य सत्यों की विस्तृत व्याख्या ‘महावग्ग’ (महापरिनिर्वाणसुत्त) में की गई हैं।
प्रथम आर्य सत्य
  • दुःख – संसार दुःखों से परिपूर्ण हैं।
द्वितीय आर्य सत्य
  • दुःख समुदायः दुःख की उत्पत्ति
  • दुःख की उत्पत्ति सकारण हैं, अकारण नहीं।
  • बुद्ध के अनुसार अज्ञान ही दुःखों का मूल कारण हैं।
  • कारण समुदाय ही दुःख समुदाय कहलाता हैं। इसी समुदाय के कारण जन्म-मरण होता है, अतः इसे जन्म-मरण चक्र, भव-चक्र भी कहते हैं।
  • दुःख समुदाय के 12 अंग हैं, अतः इसे द्वादश निदान भी कहा जाता हैं।

यह द्वादशनिदान 3 निदानों में विभक्त हैं-

1. अतीत- जन्म सम्बन्धी

2. वर्तमान- जीवन सम्बन्धी निदान

3. भविष्य- जीवन से सम्बन्ध निदान

  • तात्पर्य यह हैं कि वर्तमान जीवन का कारण अतीत- जन्म हैं तथा भविष्य जीवन वर्तमान जन्म का कार्य हैं।

1.अविद्या – अविद्या का अर्थ विद्या का अभाव है अर्थात् अज्ञात। चार आर्य- सत्यों के ज्ञान का अभाव ही अज्ञात हैं।

2.संस्कार – यह कर्म हैं।

  • संस्कार पूर्व-जन्म की कर्मावस्था हैं जिसके कारण हमने पाप-पुण्य रूप से कर्म किया हैं तथा अच्छा या बुरा फल भोग रहे हैं।
  • कर्म शरीर, मन और वाणी तीनों से हुआ करते है।

3.विज्ञान – यह विजानन हैं।

  • व्यक्ति पूर्व-जन्म के कर्मानुसार माता के गर्भ में आकर सर्वप्रथम चैतन्य अवस्था को प्राप्त करता हैं।
  • इस चैतन्य की अवस्था में ही उसे इन्द्रियों तथा विषयों की जानकारी प्राप्त होती हैं।
  • भोग के विषयों की जानकारी प्रारंभ हो जाती हो, जो सबसे पहली चेतना हैं।

4.नामरूप – यह पंचस्कंध की अवस्था हैं।

  • पांच स्कंध है – संज्ञा, वेदना, संस्कार, विज्ञान और रूप।
  • इसमें रूप, पृथ्वी, जल, तेज, वायु आदि महाभूतों को कहते हैं।
  • ये सभी शारीरिक धर्म हैं।
  • बौद्ध धर्म में आत्मा नाम कहलाता है। इसी के द्वारा व्यक्ति पुकारा जाता है, उसका नाम लिया जाता है।
  • बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार गर्भ क्षण से लेकर शारीरिक और मानसिक अव्यवस्थाओं की रचना समय ही नाम-रूप कहलाता है।
  • इसे माता के गर्भ में प्रति संधि की अवस्था भी कहते हैं।

5.षड़ायतन- पांच इन्द्रियों और मन को मिलाकर।

  • इन्हें ज्ञानेन्द्रियां कहते है।

6.स्पर्श – यह इन्द्रिय और विषय के सम्पर्क या संयोग की अवस्था है। स्पर्श विषयानुभूति की अवस्था हैं।

7.वेदना – अनुभव करने का नाम (सुख-दुःख)

8.तृष्णा – यह विषयों के प्रति आसक्ति हैं। बौद्ध दर्शन में तृष्णा ही जन्म और मरण का यथार्थ कारण माना गया हैं।

9.उपादान – सांसारिक विषयों की उत्कष्ट अभिलाषा।

10.भव – जन्म ग्रहण की प्रवृत्ति – पुनर्जन्म

11.जाति – जन्म ग्रहण करना ही जाति है। जाति को पंचस्कन्धों के स्फुरण की अवस्था माना गया है। व्यक्ति भव-चक्र में पड़कर शरीर धारण करता है। इसी शरी धारण करने की क्रिया का नाम जाति है।

12.जरामरण – जरा का अर्थ बुढ़ापा और मरण का अर्थ मृत्यु या विनाश है। यही दुःख है।

द्वादश निदान को ही बौद्ध दर्शन में दुःख समुदाय कहा गया है। यही दुःख का करण (समुदाय) है। बिना कारण के कार्य नहीं उत्पन्न होता, यही कार्य कारण नियम है।

दुःख का यथार्थ कारण तृष्णा है।

जन्म-मरण का कारण कोई अदृश्य शक्ति, अज्ञात ईश्वर नही।

प्रतीत्य-समुत्पाद

प्रतीत्य- समुत्पाद से सर्वप्रथम कर्मवाद की स्थापना होती है।
यह सिद्धांत ही बुद्ध के उपदेशों का सार एवं बौद्ध धर्म का मूल मंत्र है।
प्रतीत्य समुत्पाद का शाब्दिक अर्थ है-
किसी वस्तु के होने पर (प्रतीत्य), किसी दूसरी वस्तु की उत्पत्ति होती है। (समुत्पाद)
जीवन के सारे कार्य, जैसे- जन्म, मरण, दुःख, खुशी आदि कार्य एवं कारण पर निर्भर करते है।

तृतीय आर्य सत्य
  • दुःख निरोध
  • इच्छाओं या तृष्णाओं को अपने वशीभूत रखकर ही दुःख को खत्म किया जा सकता है।
    यह आध्यात्मिक अनुभव की अंतिम अवस्था है।
    जरा-मरण का निदान ही निर्वाण है।
    निर्वाण निर्वेद की अवस्था है।
    तृष्णा के कारण ही मनुष्य में राग-द्वेष और मोह उत्पन्न होता है।
    राग-द्वेष के निरोध से जन्म-मरण का स्रोत बंद हो जाता है अर्थात् ‘भव’ रूक जाता है।
    तृष्णा का क्षय निर्वाण है।
    यदि कारणों को प्रतिस्थापित कर दिया जाए तो कार्य की भी समाप्ति हो जाती है, उसी प्रकार अविद्या (मूल कारण) का निराकरण कर दुःख का अत्यधिक विरोध संभव है।
  • निर्वाण का अर्थ है- बुझ जाना।
  • जिस प्रकार तेल के समाप्त होने पर दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार तृष्णा के समाप्त होने पर दुःख भी बुझ जाता है।
    निर्वाण एक शांत, संतुष्ट व मोक्ष अवस्था है।
    बुद्ध की अनासक्त कर्म भावना गीता की निष्काम कर्म भावना से मिलती-जुलती है।
चतुर्थ आर्य सत्य
  • दुःख निरोध मार्ग
  • जिन कारणों से दुःख उत्पन्न होता है। उन कारणों के नाश का उपाय ही निर्वाण मार्ग कहा गया है।
    इसके आठ अंग है, इसलिए इस अष्टांगिक मार्ग कहते हैं। इसको प्रज्ञा, शील और समाधि नामक त्रिरत्न में विभाजित किया गया है।

इसके आठ अंग निम्नलिखित हैं-

1.सम्यक् दृष्टिः- अविद्या के कारण ही मिथ्या-दृष्टि उत्पन्न होती है। विवके द्वारा सत्य-असत्य, सदाचार-दुराचार को परखने की दृष्टि । पालि निकायों में मिथ्या दृष्टि को विपल्लासा कहा है।

2.सम्यक् संकल्पः- इच्छा और हिंसा से रहित संकल्प।

  • सम्यक् संकल्प के दो आशय है- शुभ संकल्प का ग्रहण करना तथा अशुभ संकल्प का त्याग।
  • शुभ संकल्पों को धारण करने के लिए दो गुणों की आवश्यकता हैः मंत्री और करणा।

3.सम्यक् वाक्ः- अनुचित वचन का त्याग ही सम्यक् वाणी है। अनुचित वचन चार प्रकार के हैः मृषा-वाचाः मिथ्या वचन

  • पिशुन-वाचाः चुगली करना
  • परुषा-वाचाः कठोर
  • संकपल्लना-वाचाः संप्रलाप (व्यर्थ बकवास)
  • सदा मृदु, सत्य एवं प्रिय लेकिन धर्मसम्मत वाणी बोलना।

4.सम्यक् कर्मान्त-

  • पाप-कर्मों का त्याग।
  • पापकर्म मुख्यतः तीन बतलाये गये हैं- हिंसा अर्थात् पानानिपात, अस्तेय अर्थात् चोरी और अब्रह्मचर्य अर्थात् इन्द्रिय निग्रह का अभाव।
  • अहिंसा के लिए करुणा, अस्तेय के लिए यथा लाभ संतोष और ब्रह्मचर्य के लिये इन्द्रियनिग्रह की आवश्यकता है।

5.सम्यक् आजीव-

  • जीविका निर्वाह के लिए उचित मार्ग का अनुसरण तथा निषिद्ध मार्ग का त्याग ही सम्यगाजीव है।
    पालि निकायों में तथागत के समय पांच प्रकार के निषिद्ध मार्ग का वर्ण आया है-
    क. शस्त्र का व्यापार
    ख. प्राणी का व्यापार (सत्य वणिज्जा)
    ग. मांस का व्यापार
    घ. मद्य का व्यापार (मज्ज)
    ड. विष (विसव)

6.सम्यक् व्यायाम –

  • शुभ विचारों का ग्रहण और अशुभ विचारों का परित्याग करने के लिये प्रयत्न ही सम्यक् व्यायाम है।
    सम्यक् व्यायाम के चार अंग है- पहले के अशुभ विचारों का पूर्णतः त्याग
    नये अशुभ विचारों का उदय न हो,
    मन को सर्वदा शुभ विचारों से आच्छादित करना
    इन शुभ विचारों को बनाये रखने के लिए सतत् प्रयत्न करना।

7.सम्यक् स्मृति-

सांसारिक निःसारता के ज्ञान को सदैव बनाए रखना।
ज्ञात विषयों का यथार्थ स्मरण हैं। जिन विषयों का सम्यक् ज्ञान हो चुका हैं उन्हें सतत स्मरण करना चाहिए।

8.सम्यक् समाधि-

  • चित्त को पूर्णरूप से एकाग्र करना।
  • दो अंग – चित्त एकाग्रता और प्रज्ञा।
मध्यम मार्ग
  • भगवान बुद्ध का मार्ग मध्यम – प्रतिपदा कहलाता है।
  • यह सिद्धांत अन्य सभी दार्शनिक विचारों का आधार है।
  • अनित्यवाद और अनात्मवाद दो महत्वपूर्ण सिद्धांतों का प्रतीत्य समुत्पाद से घनिष्ठ संबंध है। इसे कार्य कारण सिद्धांत कहते है।
त्रिरत्न

1. शील- आचरण
2. समाधि- मनन
3. प्रज्ञा- ज्ञान

पंचशील

  • सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह
    बौद्ध धर्म के दस शील
    व्यभिचार न करना
    मद्य का सेवन न करना
    असमय भोजन न करना
    सुखप्रद बिस्तर पर नहीं सोना
    संगीत एवं नृत्य से दूर रहना।
    बौद्ध धर्म के अन्य सिद्धांत – क्षणभंगवाद, कर्म सिद्धांत, नैरात्मवाद भी प्रतीत्य- समुत्पाद पर ही आधारित है।
क्षणभंगवाद (क्षणिकवाद/अनित्यवाद)
  • संसार की प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति विशिष्ट परिस्थितियों के कारण होती है और उसका जीवन अस्थायी होता हैं अर्थात् यह संसार नित्य नहीं है। यह संसार निरंतर परिवर्तनशील और क्षणभंगुर हैं।
    अनित्यवाद शाश्वत और उच्छेदवाद का मध्यमार्ग हैं।
    क्षणिकवाद अनित्यवाद का ही विस्तार है।

अर्थक्रियाकारित्व

  • यह क्षणिकवाद पर आधारित हैं।
    किसी वस्तु की सत्ता का लक्षण है ‘अर्थक्रियाकारित्व’ अर्थात् किसी कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति अर्थात् कार्योत्पादन सामर्थ्य वर्तमान भूत से जन्य या उत्पन्न है अर्थात् भूत वर्तमान को उत्पन्न करने में शक्त या समर्थ है।

अनात्मवाद

  • आत्मा पंच – स्कंधों का समुदाय मात्र हैं अर्थात् रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, पांचों का समुदाय ही आत्मा कहलाता है।
    इस प्रकार भगवान बुद्ध केवल पामार्थिक नित्य आत्मा का निषेध करते है परंतु अनित्य व्यावहारिक आत्मा को करते है।
पंच स्कन्द

रूप स्कन्द

  • पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार महाभूत तथा इनसे उत्पन्न सभी रूप-स्कन्ध कहलाते है।
    हड्डी, स्नायु, मांस और चर्म से घिरा आकार ही रूप् कहलाता है।

वेदना स्कंध-

  • सुख, दुःख और न सुख-दुःख इन तीनों प्रकार की अनुभूतियों को वेदना कहते है।

संज्ञा स्कन्ध-

  • गुणों के आधार पर किसी वस्तु का नामकरण ही संज्ञा-स्कन्ध (ज्ञान) है।
    संज्ञा का कार्य पहचान कराना है।
    हमें नील, पीत, रक्त, श्वेत आदि रूप से वस्तु का संजाजन होता है, यही संज्ञा है।

संस्कार स्कंध-

  • कुशल-अकुशल चेतना ही
    राग-द्वेष आदि प्रवृत्तियां/मानसिक
    संस्कार तीन हैं-
    काय संस्कार- कायिक धर्म, आश्वास-प्रश्वास
    वाक् संस्कार- वितर्क-विचार ही वचन या
    चित् संस्कार- संज्ञा और वेदना

विज्ञान स्कन्ध-

  • बाह्य वस्तुओं का ज्ञान और आंतरिक अहं अर्थात् ‘मैं’ का ज्ञान ही विज्ञान कहलाता है।
    संज्ञा, वेदना और विज्ञान तीनों का आपस में सम्बंध है।
    मधुर, तिक्त आदि स्वाद का अनुभव वेदना है, किसी वस्तु का परिचयात्मक ज्ञान संज्ञा है।
    परिच्रय के पहले स्वरुप मात्र का ज्ञान विज्ञान हैं।
    निर्वाण प्राप्ति के लिए बौद्ध धर्म में दस शीलों के अनुपालन पर बल दिया गया है।

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