• कार्ल लैण्डस्टीनर ने 1900 में पाया कि यदि एक व्यक्ति की लाल रुधिर कणिकाओं को अन्य व्यक्ति के रक्त सीरम में रख दिया जाए तो लाल रुधिर कणिकाओं के मध्य समूहन Agglutation होने की आशंका रहती है।
  • यदि ऐसे व्यक्तियों के मध्य रक्ताधान कर दिया जाये तो ग्राही की मृत्यु हो जाती है।
  • लैण्डस्टीनर ने अनुसंधानों द्वारा ज्ञात किया कि रुधिर में उपस्थित लाल रुधिर कणिकाओं की झिल्ली पर दो प्रकार के प्रतिजन Antigen पाये जाते है।
  • ये विशिष्ट प्रकार के प्रोटीनों के बने होते हैं। इन्हें प्रतिजन-A तथा प्रतिजन-B कहते हैं।
  • रुधिर सीरम में दो प्रकार के प्रतिरक्षी Antibodies उपस्थित होते हैं। इन्हें प्रतिरक्षी-a तथा प्रतिरक्षी-b कहते हैं।
  • प्रतिजन की उपस्थिति के आधार पर लैण्डस्टीनर ने रुधिर को चार समूहों या वर्गों में विभाजित किया, जिन्हें रुधिर समूह ‘ए, बी, एबी, तथा ओ’ कहते हैं।
1- रुधिर वर्ग ‘ए’ –
  • रुधिर वर्ग ए वाले व्यक्तियों की लाल रुधिर कणिकाओं पर प्रतिजन-A तथा सीरम में प्रतिरक्षी-b पाया जाता है।
  • भारत में लगभग 25 प्रतिशत व्यक्तियों का रुधिर वर्ग ए होता है।
2- रुधिर वर्ग ‘बी’ –
  • इस रुधिर वर्ग वाले व्यक्तियों की लाल रुधिर कणिकाओं पर प्रतिजन-B तथा सीरम में प्रतिरक्षी-a उपस्थित होते हैं।
  • भारत में लगभग 35 प्रतिशत व्यक्तियों का रुधिर वर्ग बी प्रकार का होता है।
3- रुधिर वर्ग ‘एबी’ –
  • इस रुधिर वर्ग वाले व्यक्तियों की लाल रुधिर कणिकाओं पर प्रतिजन-A तथा B दोनों उपस्थित होते हैं परन्तु सीरम में प्रतिरक्षी अनुपस्थित होते हैं।
  • भारत में लगभग 10 प्रतिशत व्यक्तियों का रुधिर वर्ग एबी प्रकार का होता है।
4- रुधिर वर्ग ‘ओ’ –
  • रुधिर वर्ग ‘ओ’ वाले व्यक्तियों की लाल रुधिर कणिकाओं पर प्रतिजन-A तथा B दोनों अनुपस्थित होते हैं परन्तु सीरम में दोनों प्रतिरक्षी a एवं b उपस्थित होते हैं।
  • प्रतिजन की अनुपस्थिति के कारण इन्हें शून्य वर्ग (ओ) नाम दिया गया था। वर्तमान में इसे रुधिर वर्ग ‘ओ’ कहा जाता है।
  • भारत में लगभग 30 प्रतिशत व्यक्तियों का रुधिर वर्ग ‘ओ’ प्रकार का होता है।
रक्ताधान Blood Transfusion
  • स्वस्थ व्यक्ति (दाता) का रुधिर, रोगी (ग्राही) को दिया जाना रक्ताधान कहलाता है।
रक्त समूहन Blood Agglutination
  • प्रतिरक्षा तंत्र में विशिष्ट प्रकार के प्रतिरक्षी विशिष्ट प्रतिजन के प्रति प्रतिक्रिया दर्शाते हैं, इसी कारण सीरम में उपस्थित प्रतिरक्षी, स्वयं के रुधिर वर्ग के अतिरिक्त, अन्य प्रतिजन वाले रुधिर के रक्ताधान का प्रतिरोध करते हैं।
  • जैसे, रोगी (रुधिर ग्राही) का रुधिर वर्ग ‘ए’ (प्रतिजन-A) प्रकार का है तो उसके सीरम में उपस्थित प्रतिरक्षी-इ प्रकार के होंगे।
  • इस व्यक्ति में रुधिर वर्ग ‘बी’ (प्रतिजन-B) का रक्ताधान कराने पर, रोगी के प्रतिरक्षी इसका प्रतिरोध करते हैं। ऐसी स्थिति में ‘प्रतिजन-प्रतिरक्षी परस्पर क्रिया’ होने से, लाल रुधिर कोशिकाएं आपस में चिपकने लगती है इसे रक्त समूहन कहते हैं।
  • इसके कारण ग्राही की रुधिर वाहिनियों के अवरुद्ध हो जाने से उसकी मृत्यु हो सकती है।
  • रुधिर वर्ग ‘एबी’ में प्रतिरक्षी अनुपस्थित होते हैं अतः इस रुधिर वर्ग वाले व्यक्ति किसी भी अन्य वर्ग का रुधिर ग्रहण कर सकते हैं।
  • इसी प्रकार रुधिर वर्ग ‘ओ’ में प्रतिरक्षी a एवं b उपस्थित होते हैं जो प्रतिजन-A तथा B की उपस्थिति वाले रुधिर वर्गों जैसे रुधिर वर्ग ए, बी तथा एबी का प्रतिरोध करते हैं। अतः रुधिर वर्ग ‘ओ’ वाले रोगी (ग्राही) को केवल रुधिर वर्ग ‘ओ’ का ही रक्ताधान किया जा सकता है।
रुधिर वर्ग
RBC पर उपस्थित प्रतिजन (Ag)
सीरम में उपस्थित प्रतिरक्षी (Ab)
रक्तदान योग्य रुधिर   वर्ग
रक्त ग्रहण योग्य रुधिर वर्ग
‘ए’ A b ‘ए’ तथा ‘एबी’ ‘ए’ तथा ‘ओ’
‘बी’ B a ‘बी’ तथा ‘एबी’  ‘बी’ तथा ‘ओ’
‘एबी’ A तथा B केवल ‘एबी’ ‘ए’, ‘बी’ ‘एबी’ तथा ‘ओ’ (सभी)
‘ओ’ a तथा b ‘ए’, ‘बी’ ‘एबी’ तथा ‘ओ’ (सभी) केवल ‘ओ’
  • इस तालिका से ज्ञात होता है कि रुधिर वर्ग ‘ओ’ वाला व्यक्ति अन्य सभी रुधिर वर्ग वाले व्यक्तियों (ग्राही) को रुधिरदान कर सकता है, इसलिए ‘ओ’ को सार्वत्रिक दाता (Universal Donor) कहते है।
  • इसी प्रकार रुधिर वर्ग ‘एबी’ वाला व्यक्ति अन्य सभी रुधिर वर्गों से रुधिर ग्रहण कर सकता है, इसलिए रुधिर वर्ग ‘एबी’ को सार्वत्रिक ग्राही (Universal Acceptor) कहते है।

आर एच कारक Rh Factor

  • लैण्डस्टीनर द्वारा रुधिर वर्गों की पहचान स्थापित होने के बावजूद कई बार पाया गया कि रोगी को उसी के रुधिर वर्ग का रक्ताधान कराने पर भी रक्त समूहन हो जाने से उसकी मृत्यु हो गयी।
  • लैण्डस्टीनर तथा वीनर (1940) ने मकाका रीसस नामक बन्दर पर अनुसंधान कर बताया कि मनुष्यों में प्रतिजन-A तथा B के अतिरिक्त एक अन्य प्रतिजन भी उपस्थित होता है।
  • इस प्रतिजन को रीसस (Rhesus) बन्दर में खोजा गया था इसलिए इसे आर एच कारक कहा गया।
  • जिन व्यक्तियों के रुधिर में यह कारक उपस्थित होता है, उन्हें आर एच धनात्मक (Rh+) तथा जिनमें यह अनुपस्थित होता है, उन्हें आर एच ऋणात्मक (Rh-) कहते हैं।
  • समान रुधिर वर्ग किन्तु भिन्न आर एच कारक वाले व्यक्तियों के मध्य रक्ताधान करोन पर भी रुधिर समूहन हो जाने से रोगी की मृत्यु हो सकती है।
महत्त्वपूर्ण बिन्दु –
  • रुधिर वर्गों की खोज कार्ल लैण्डस्टीनर ने 1900 में की थी।
  • आर एच कारक की खोज लैण्डस्टीनर तथा वीनर ने 1940 ई. में रीसस नामक बन्दर में की थी।
  • आर एच ऋणात्मक वाली माता का दूसरा भ्रूण (शिशु) भी आर एच धनात्मक हो तो शिशु को गर्भ रक्ताणुकोरकता नामक रोग हो जाता है।
  • रुधिर वर्ग ‘ओ’ सार्वत्रिक दाता, जबकि रुधिर वर्ग ‘एबी’ सार्वत्रिक ग्राही कहलाता है।
  • रुधिर वर्ग का नियंत्रण एक जीन के तीन विकल्पी द्वारा होता है। इन्हें IA, IB तथा i कहते हैं।
  • मनुष्य में रुधिर वर्ग के निर्धारण हेतु 6 प्रकार के जीनप्रारुप पाये जाते है।

1- निम्न में से एक मनुष्य के रुधिर में मिलने वाला प्रतिजन नहीं हैं-

अ. A ब. B            स. Rh द. O

उत्तर – द

2- रुधिर वर्ग ‘ओ’ वाली स्त्री का विवाह रुधिर वर्ग ‘एबी’ वाले पुरुष से होने पर, उनमें उत्पन्न शिशुओं में पाये जाने वाले रुधिर वर्गों की संभावना, निम्न में से है-

अ. 50ः एबी तथा 50ः ओ

ब. 25: ए, 25ः बी, 25ः एबी, तथा 25ः ओ

स. 25: ए, 25ः बी, तथा 50ः ओ

द. 50: ए तथा 50ः बी

उत्तर – द

3- ABO रुधिर वर्ग का नियंत्रण करने वाले जीन विकल्पी, संख्यानुसार हैं-

अ. एक ब. दो स. तीन द. चार

उत्तर – स