भारतीय संविधान की विशेषताएं


Salient Features of Indian Constitution –

  1. सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न संविधान (Sovereign Constitution) –
    भारत का संविधान लोकप्रिय प्रभुसत्ता पर आधारित संविधान है अर्थात यह भारतीय जनता द्वारा निर्मित है। इस संविधान द्वारा अन्तिम शक्ति भारतीय जनता को प्रदान की गई है। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि ‘हम भारत के लोग इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित व आत्मार्पित करते हैं’ अर्थात भारतीय जनता ही इस की निर्माता है, जनता ने स्वयं की इच्छा से इसे अंगीकार, अधिनियमित व आत्मर्पित किया है। इसे किसी अन्य सत्ता द्वारा थोपा नहीं गया है।
  2. प्रस्तावना (Preamble) –
    भारतीय संविधान के मौलिक उद्देश्यों व लक्ष्यों को संविधान की प्रस्तावना में दर्शाया गया है। डॉ. के. एम. मुंशी ने इसे संविधान की राजनीतिक कुंडली कहा है। इसके महत्त्व को देखते हुए इसे संविधान की आत्मा भी कहा जाता है। प्रस्तावना की शुरूआत में ‘हम भारत के लोग’ से अभिप्राय है कि अन्तिम प्रभुसत्ता भारतीय जनता में निहित है। यह संविधान की मुख्य विशेषता है।
  3. विश्व का सबसे विशाल संविधान (Largest Constitution of the World) –
    जहां अमेरिका के संविधान में 07 अनुच्छेद, कनाडा के संविधान में 147 अनुच्छेद, आस्ट्रेलिया के संविधान में 128 अनुच्छेद व दक्षिण अफ्रीका के संविधान में 153 अनुच्छेद हैं वहीं हमारा संविधान व्यापक व विस्तृत संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद 22 भाग व 12 अनुसूचियां, 05 परिशिष्ट है। इसमें अब तक 101 संशोधन हो चुके हैं और संशोधन की यह प्रक्रिया अनवरत जारी है। इस कारण भी इसका स्वरूप विशाल हो जाता है।
    हमारा संविधान संघात्मक है, इसमें संघ व राज्यों के बीच सम्बन्धों का बहुत व्यापक वर्णन किया गया है। संविधान के एक अध्याय में तो राज्य के नीति निर्देशक सिद्वांतो का ही उल्लेख है जो अधिकांश देशों के संविधान में नहीं है।
    संविधान की इसी विशालता को लेकर हरिविष्णु कामथ ने कहा था कि ”हमें इस बात का गर्व है कि हमारा संविधान विश्व का सबसे विशाल संविधान है।”
    संविधान का 101वां संशोधन वस्तु व सेवा कर (GST) से संबंधित है जिसे राष्ट्रपति ने सितम्बर, 2016 में हस्ताक्षरित किया है।
  4. लिखित एवं निर्मित संविधान (Written and Created Constitution) –
    भारतीय संविधान संविधान सभा द्वारा निर्मित एवं लिपिबद्ध किया गया दस्तावेज है। संविधान सभा ने इसे 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में तैयार किया था। विस्तृत संविधान होने के बावजूद इसे देश की
    परिस्थितियों व आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए उसमें संशोधन की व्यवस्था भी की गई है। अब तक इसमें 101वां संशोधन हो चुके हैं।
  5. संसदीय शासन व्यवस्था (Parliamentary System of Government)-
    डॉ. अम्बेडकर के अनुसार ”संसदात्मक प्रणाली में शासन के उत्तरदायित्व का मूल्यांकन एक निश्चित समय बाद तो होता ही है इसके साथ—साथ दिन प्रतिदिन भी होता रहता है। इस प्रणाली
    में कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। राष्ट्रपति का पद गरिमा व प्रतिष्ठा का होता है पर उसकी स्थिति सांविधानिक प्रधान की है, वास्तविक शक्तियां मंत्रिमण्डल के द्वारा प्रयोग की जाती हैं। संसद का विश्वास समाप्त होने पर मंत्रिमण्डल को त्यागपत्र देना पड़ता है। इस व्यवस्था से प्रधानमंत्री ही मंत्रिमण्डल का नेतृत्व करता है भारत में संसदीय व्यवस्था को केन्द्र के साथ राज्यों में भी अपनाया गया है जहां राज्यपाल सांविधानिक प्रमुख होता है।
  6. मौलिक अधिकार व कर्त्तव्य (Fundamental Rights & Duties) –
    भारतीय संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों का वर्णन संविधान के भाग- 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक किया गया है।
    संविधान निर्माताओं ने 07 मौलिक अधिकार देश के नागरिकों को दिये थे— समता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति व शिक्षा सम्बन्धी अधिकार, सांविधानिक उपचारों का अधिकार, सम्पति का अधिकार। भारतीय संविधान में 44वें संशोधन के बाद सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया है। अतः अब मौलिक अधिकार 06 रह गये है।
    इन अधिकारों का हनन होने पर नागरिक न्यायालय की शरण ले सकते हैं।
    86वें संवैधानिक संशोधन (दिसम्बर, 2002) जो कि जुलाई, 2009 में संसद में पारित किया गया व 1 अप्रैल 2010 को लागू हुआ के द्वारा शिक्षा (प्रारम्भिक) के अधिकार को मूल अधिकार के रूप में संविधान में शामिल कर लिया गया है।
    अब अनुच्छेद 21 के बाद एक नया अनुच्छेद 21क जोड़ा गया है जिसके अनुसार 6 से 14 वर्ष की उम्र के सभीं बच्चों को अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा प्राप्त हो, की व्यवस्था करना राज्य का दायित्व है। याद रखें कि यह अधिकार स्वतंत्रता के अधिकार में जोड़ा गया है।
    एम.सी. छागला के अनुसार- ”एक स्वतंत्र न्यायालय को नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का काम सौप कर भारतीय संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई है कि जिस पर कोई भी सभ्य देश गर्व कर सकता है।’’
    42वें संविधान संशोधन 1976 के द्वारा नागरिकों के 10 मूल कर्त्तव्य निर्धारित किये गये हैं। जिनका पालन करना प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक दायित्व है। इसमें संविधान का पालन करना भारत की सम्प्रभुता एकता व अखण्डता की रक्षा करना, भाई चारे की भावना रखना, प्रकृति व पर्यावरण की रक्षा करना आदि प्रमुख कर्त्तव्य है। अप्रैल, 2010 से लागू शिक्षा के अधिकार संबधी 86वें संविधान संशोधन द्वारा 11वां मूल कर्तव्य भी संविधान में जोड़ दिया गया है, जिसके अनुसार अपने 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना अभिभावकों का कर्तव्य है। अतः वर्तमान में मूल कर्तव्यों की संख्या 11 है।
  7. राज्य के नीति निर्देशक तत्व (Directive Principles of State Poilcy) –
    आयरलैण्ड के संविधान से प्रेरित होकर संविधान के भाग 4 में नीति निर्देशक तत्वों का वर्णन किया गया है। राज्य के नीति निर्देशक तत्व वे विचार हैं जो भविष्य में बनने वाली सरकारों के समक्ष पथ प्रदर्शक की भूमिका का निर्वहन करते हैं। यद्यपि इनके क्रियान्वयन के लिए सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता। ये न्यायालय में वाद योग्य भी नहीं है। लोक कल्याणकारी राज्य के लिए आवश्यक होने के कारण किसी भी सरकार द्वारा इनकी उपेक्षा संभव नहीं है।
  8. समाजवादी राज्य (Socialist State) –
    42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा भारत को समाजवादी गणराज्य घोषित किया गया है। यद्यपि मूल संविधान में यह शब्द प्रयुक्त नहीं था। प्रस्तावना में यह शब्द भारतीय राज व्यवस्था को एक नई दिशा दिये जाने की भावना को दृष्टिगत रखकर जोड़ा गया है।
  9. वयस्क मताधिकार (Adult Franchise)-
    हमारे देश के संविधान में 18 वर्ष की आयु प्राप्त प्रत्येक नागरिक को समान रूप से मताधिकार प्रदान किया गया है। यद्यपि मूल संविधान में आयु 21 वर्ष थी किन्तु संविधान में 61वें संशोधन द्वारा आयु सीमा 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है।
  10. पंथ निरपेक्ष राज्य (Secular State) –
    भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार धर्म के क्षेत्र में प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता प्रदान की गई है। धर्म के आधार पर किसी भी नागरिक से भेदभाव नहीं किया जा सकता। राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है। किन्तु भारत में यूरोपीय मॉडल की भांति राज्य और धर्म के बीच पार्थक्य नहीं है। संविधान राज्य को अधिकृत करता है कि वह धर्म से जुड़ी कुरीतियों का निराकरण करने के लिए धार्मिक मामलों में मूल्य आधारित हस्तक्षेप करें। इसे प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री राजीव भार्गव ने धर्म निरपेक्षता का उसूली फासले का सिद्धांत कहा है।
  11. विलक्षण दस्तावेज (Distinguished Document) –
    संविधान निर्माताओं की बुद्धिमत्ता व दूरदृष्टि का प्रमाण है कि उन्होंने संविधान में जनता द्वारा मान्य आधारभूत मूल्यों व सर्वोच्च आंकाक्षाओं को स्थान दिया। हमारा संविधान एक विलक्षण दस्तावेज है। दक्षिण अफ्रीका ने तो इसे प्रतिमान के रूप में अपने देश का संविधान बनाने हेतु काम में लिया है।
  12. एकात्मक व संघात्मक तत्वों का अद्भुत संयोग (Remarkable Fusion of Unitary and Federal Elements) –
    भारत एक संघात्मक राज्य है, संविधान में संघ शब्द के स्थान पर Union of states शब्द का प्रयोग किया गया है संविधान के पहले अनुच्छेद में ही कहा गया है कि ”भारत राज्यों का एकक होगा” जिसे प्रचलन में ‘राज्यों का संघ’ भी कहा जाता है। संविधान निर्माताओं की आकांक्षा ऐसा संविधान बनाने की थी जिसमें केन्द्र सरकार भारत की एकता को बनाये रखे तथा राज्यों को भी स्वायतत्ता मिले। इसलिए इसमें संघात्मक व एकात्मक तत्वों का मिश्रण किया गया है। संविधान के अनेक प्रावधान केन्द्र को राज्यों की अपेक्षा शक्तिशाली बनाते हैं।
    जैसे— अतिमहत्वपूर्ण विषयों को संघ सूची में स्थान, समवर्ती सूची में केन्द्र के निर्णय को प्रमुखता, अवशिष्ट शक्तियां केन्द्र के पास, आपात काल में केन्द्र का राज्यों पर नियंत्रण इकहरी नागरिकता, अखिल भारतीय सेवाएं, संसद को राज्यों के पर्नुगठन का अधिकार (जम्मू कश्मीर को छोड़कर) राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति, राज्यों की केन्द्र पर आर्थिक निर्भरता केन्द्र को मजबूती प्रदान करती है। राज्य अपना पृथक संविधान नहीं रख सकते केवल एक ही संविधान केन्द्र व राज्य दोनों पर लागू होता है।
  13. स्वतंत्र न्याय पालिका (Independent Judiciary)-
    संविधान की सर्वोच्चता प्रजातंत्र की रक्षा, जनता के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए भारतीय संविधान में कई संवैधानिक व्यवस्थाएं की गई है। भारत के राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों की नियुक्ति की जाती है तथा उन्हें संसद में महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता हैं। कार्यपालिका के आदेश तथा व्यवस्थापिका के कानून यदि संवैधानिक व्यवस्थाओं का उल्लंघन करते हैं तो न्यायपालिका को न्यायिक पुनरावलोकन उन्हें अवैध घोषित करने का अधिकार है।
    नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत पुनरावलोकन द्वारा बन्दी प्रत्यक्षीकरण, अधिकार पृच्छा जैसे लेखों को जारी किया जा सकता है। न्यायिक स्वतंत्रता के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ये सभी व्यवस्थाएं की गई है।
  14. कठोरता व लचीलेपन का मिश्रण (Combination of Rigidity & Flexibility) –
    भारतीय संविधान कठोरता व लचीलेपन का मिश्रण है। किसी भी देश की परिस्थितियों में बदलाव के साथ संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता होती है।
    संवैधानिक संशोधन के लिए भारतीय संविधान संशोधन विधि अनच्छेद 368 में दी गई है, संविधान में संशोधन व्यवस्था कछु भागों के सम्बन्ध में कठोर तो कुछ में लचीली रखी गई है। संविधान में कठोरता का समावेश संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान व लचीलेपन का ब्रिटेन के संविधान से लिया गया है। भारतीय संविधान में संशोधन की कुल तीन विधियां हैं, जिनमें से पहली विधि का वर्णन अनच्छेद 368 में नहीं है। संविधान के कुछ भागों में संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत से संशोधन किया जाता है जैसे राज्यों का पुर्नगठन, राज्यों में विधान परिषद की स्थापना या समाप्ति, केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बनाना, संसद सदस्यों के वेतन आदि कछु विषयों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के पूर्ण बहुमत व उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। कछु विषयों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनो के पूर्ण बहुमत, उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत के अतिरिक्त कम से कम आधे राज्यों की विधान मण्डलों का समर्थन आवश्यक है। राष्ट्रपति निर्वाचन की पद्धति, केन्द्र व राज्यों के बीच शक्ति विभाजन आदि विषयों के संशोधन के लिए यह जटिल प्रक्रिया अपनाई जाती है। संशोधन की इन तीन
    विधियों से स्पष्ट है कि संविधान संशोधन के लिए लचीले व कठोरता का मिश्रण किया गया है। डॉ. ह्वीयर के शब्दों में भारतीय संविधान अधिक कठोर तथा अधिक लचीले के मध्य एक अच्छा संतुलन स्थापित करता है।
  15. न्यायिक पुनरावलोकन व संसदीय सम्प्रभुता का समन्वय (Harmony Between Judicial Review &
    Parliamentary Supremacy) –
    भारतीय संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन के सिद्वांत व संसदीय सम्प्रभुता के मध्य मार्ग को अपनाया गया है। हमारे संविधान में संसद को सर्वोच्च बनाया गया है, साथ ही उसको नियंत्रित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की व्याख्या करने का अधिकार प्रदान किया गया है। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय कार्यपालिका के उन आदेशों तथा संसद द्वारा निर्मित विधि को अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान की भावना के अनुरूप न हो।
  1. विश्व शांति का समर्थक (Advocate of World Peace) –
    ”वसुधैव कुटुम्बकम” के सिद्धांत को अपनाते हुए भारतीय संविधान में विश्व शांति का समर्थन किया गया है। नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 51 के अनुसार राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा तथा राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण व सम्मानजनक सम्बधों की स्थापना करे। भारत न तो किसी देश की सीमा व आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना चाहता है न ही अपने देश में किसी देश के हस्तक्षेप को बर्दाश्त करता है। भारत सरकार ने इसी भावना के अनुरूप पंचशील एवं गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया है।
  2. आपातकालीन उपबन्ध (Emergency Provisions)-
    संविधान के भाग 18 में आपातकालीन उपबंधों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद 352 के अनुसार बाहरी आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह एवं युद्ध की स्थिति में, अनुच्छेद 356 के अनुसार राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता की स्थिति में तथा अनुच्छेद 360 के अनुसार वित्तीय संकट उत्पन्न होने पर सम्पूर्ण देश या देश के किसी भाग में आपातकाल लागू किया जा सकता है। इसमें शासन राष्ट्रपति के अधीन संचालित होता है।
  3. इकहरी नागरिकता (Single Citizenship) –
    भारतीय संविधान द्वारा संघात्मक शासन की व्यवस्था की गई है और सामान्यतया संघ राज्य के नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त होनी चाहिए- प्रथम, संघ की नागरिकता द्वितीय राज्य की नागरिकता। लेकिन भारतीय संविधान निर्माताओं का विचार था कि दोहरी नागरिकता भारत की एकता को बनाये रखने में बाधक हो सकती है अतः संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान में संघ राज्य की स्थापना करते हुए इकहरी नागरिकता के आदर्श को ही अपनाया गया है।
  4. लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का आदर्श (Ideal of Establishing Welfare State) –
    संविधान के नीति निदेशक तत्वों से यह स्पष्ट हो जाता है कि संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान के माध्यम से कल्याणकारी राज्य की स्थापना का आदर्श निश्चित किया गया है। इस हेतु केन्द्र व राज्य सरकारें नागरिको को पौष्टिक भोजन, आवास, वस्त्र, शिक्षा व स्वास्थ्य की सुविधाएं उपलब्ध करवायें। नागरिकों के जीवन स्तर को ऊँचा उठायें। जहां तक संभव हो आर्थिक समानता की स्थापना की जाये।
    केन्द्र व राज्य सरकारें संविधान में दिये गये लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हैं। जिसके लिए नियोजन की पद्वति को अपनाया गया है।
  5. अल्पसंख्यक एवं पिछड़े वर्गों के कल्याण की विशेष व्यवस्था (Special Provisions for Welfare of Minority & Backward Classes) –
    भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के धार्मिक, भाषायी और सांस्कृतिक हितों की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। इसके अतिरिक्त संविधान अनुसूचित जातियों व जनजाति क्षेत्रों के नागरिकों को सेवाओं, संसद विधान सभाओं और अन्य क्षेत्रों में विशेष संरक्षण प्रदान किया गया है।
    संविधान के अनुच्छेद 330 व 332 के तहत अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों को लोक सभा व विधान सभाओं में आरक्षण प्रदान किया गया है। प्रारंभ में यह व्यवस्था 25 जनवरी, 1960 तक के लिए की गई थी, किन्तु संविधान में संशोधन कर इसकी समय सीमा को बढ़ाया जाता रहा है। अब 95वें संवैधानिक 2010 के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था को 25 जनवरी, 2020 तक के लिए बढा दिया गया है।
    अनुच्छेद 335 में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई।
    अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए केन्द्र सरकार की सेवाओं में सितम्बर, 1993 से 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया गया।

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